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शुक्रवार, 12 दिसंबर 2025

ज़िंदगी अधूरी तेरे बिन - भाग चार (04)

ज़िंदगी अधूरी तेरे बिन - भाग चार (04)


अंशुमन


मैं घर पहुंचा तो घर में अंधेरा था। मैंने सोचा कि प्रियंका सो रही होगी। लेकिन वह तो हमेशा मेरे लिए कुछ लाइटें जलाकर छोड़ देती है! मैंने स्विच दबाया और मेरे अंदर एक ठंडी सी लहर दौड़ गई। कुछ गड़बड़ थी। मैंने इसे हवा में महसूस किया।

"प्रियंका, बेब," मैंने पुकारा। अभी नौ ही बजे थे। तनी जल्दी सो तो नहीं सकती थी! कहीं उसकी तबीयत तो खराब नहीं? मैं उसे खोजते हुए हमारे बेडरूम, किचन और फिर डाइनिंग रूम में गया। खाली। मेज पर मेरा तोहफा अभी भी वहीं सुंदर कागज मेँ लपेटा हुआ रखा था। मैंने उसे खोलने की भी जहमत नहीं उठाई थी। लानत है! उपहार के बगल में एक लिफाफा था जिस पर मेरा नाम लिखा था।

जब हमने पहली बार डेटिंग शुरू की थी, तो उसके पास पैसे नहीं थे, तब वह मुझे हाथ से बने कार्ड देती थी, जिन पर मेरे लिए कविताएँ लिखी होती थीं। लिफाफा उठाते हुए मैं मुस्कराया। फिर कोई प्रेम कविता? लेकिन यह लिफाफा भारी था। मैंने उसे खोला, और धातु और प्लास्टिक हमारे खाने की मेज पर गिर पड़े। मेरा दिल रुक गया, फिर तेजी से धड़कने लगा। उसकी अंगूठियाँ पॉलिश किए हुए टेबल पर पड़ी थीं, उसके क्रेडिट कार्ड के साथ। मैंने झपटकर वह मुड़ा हुआ पन्ना उठाया जो उनके साथ गिर गया था। यह एक चिट्ठी थी।

मेरे प्रिय अंशुमन,

मैं जानती हूं कि इससे तुम परेशान हो जाओगे, (या शायद न होगे; शायद तुम इसका इंतजार कर रहे थे) मैं जा रही हूँ। हमारा घर, कर्नाटक, तुम, हम। सब कुछ छोड़े जा रही हूँ। स्थिति स्पष्ट होते ही, मैं वकील से संपर्क कर के तलाक के कागजात भेज दूंगी। या तुम भी तलाक की प्रक्रिया शुरू कर सकते हो।

मैं अपना फोन, क्रेडिट कार्ड, अंगूठियाँ, वो सब कुछ जो मैं सोच सकती हूँ, छोड़ रही हूँ। सारे गहने और डिजाइनर कपड़े अलमारी में हैं। मैंने सिर्फ़ अपने रोज़मर्रा के इस्तेमाल के कुछ कपड़े और चीज़ें ली हैं। मैंने घर के खाते से पाँच हज़ार रुपये निकाले हैं। मैं जानती हूँ हमारे विवाह-पूर्व के प्री-नेपुटल में क्या लिखा है, मैं जल्द से जल्द पैसे वापस कर दूँगी। मैं बच्चों से बात कर के जितना हो सके उतना समझाऊंगी। चिंता मत करो, मैं उन्हें कहूँगी कि यह मेरी गलती है, कि मैं तुम्हें यह बिना बताए, बिना हमें मौका दिए चली गई।

सच तो यह है कि मैं इतने सालों से तुमसे कहने की कोशिश कर रही हूँ, लेकिन तुम्हारे लिए मैं हमेशा अदृश्य बनी रही। तुम्हारा हमारी बीसवीं सालगिरह को भूल जाना आखिरी तिनका था, इसलिए नहीं कि सालगिरह थी, बल्कि इसलिए कि मेरे लिए यह स्पष्ट था कि तुम्हारे पास हमेशा कुछ और मुझसे ज़्यादा महत्वपूर्ण होगा, मुझसे ज़्यादा वास्तविक होगा।

मैं लगभग चालीस के नजदीक पहुँच चुकी हूँ। अगर मैं भाग्यशाली रही तो मेरे पास जीवन के और तीस-चालीस साल बचे हों शायद। मैं उन सालों को “अदृश्य प्रियंका” के रूप में नहीं जीना चाहती जो परिचारिका, माँ और प्रेमिका की भूमिका निभाने के लिए बाहर आती है, और बाकी समय किसी कुर्सी-मेज की तरह पृष्ठभूमि मेँ अदृश्य हो जाती है। मैं भी एक संपूर्ण व्यक्ति बनना चाहती हूँ। एक ऐसी व्यक्ति जिसे उसके आस पास के लोग अपने ही जैसा हाड़-माँस का मनुष्य मानें, न कि एक कामकाजी रोबोट मानें जिसे कोई दर्द नहीं होता।

मुझे सचमुच खेद है, अंशुमन। अपना ख्याल रखना।

प्रियंका

नोट: मैंने अगले दो सप्ताह के लिए फ्रीजर में पर्याप्त खाना बना कर रख दिया है। आसान भोजन, जिसे तुम्हें बस ओवन में गर्म करना है। तब तक तुम्हारी सेक्रेटरी किसी अच्छे खानसामा का इंतजाम कर लेगी।

पत्र मेरे हाथों में काँप रहा था और मैं सदमे में था। मुझे अपने सीने में खोखलापन महसूस हुआ, जैसे मेरा एक हिस्सा शरीर से बाहर निकाल लिया गया हो। मेरी आँखें फिर से शब्दों पर धुंधली हो गईं, हर वाक्य हथौड़े के प्रहार जैसा था। मैं देखता और जानता रहा था कि वह उपेक्षित जी रही है, दुखी दिखती है। लेकिन मैं अपने काम मेँ जानते बूझते सब अनदेखा करता रहा। मैं इतना अंधा कैसे हो सकता था? नहीं। ऐसा नहीं था कि मैंने संकेत देखे न हों। मैंने जानबूझकर अनदेखा किया था। मैंने सोचा था कि वह हमेशा मेरे साथ रहेगी। मैंने अपना फ़ोन उठा कर प्रियंका को फोन किया, तो वह यहीं घनघनाने लगा। फिर शाश्वत को फ़ोन किया। जब उसने फ़ोन उठाया तो वह कहीं बाहर था। मुझे पीछे से संगीत बजता हुआ सुनाई दे रहा था। "बेटा, तुम कहाँ हो?"

"दोस्तों के साथ बाहर हूँ पापा। बताइए, क्या हाल है?"

"क्या तुम्हारी माँ ने आज तुम्हें फोन किया?"

मैंने उसे किसी से बात करते और हंसते हुए सुना और फिर मुझसे जवाब देते हुए कहा, "हाँ, मुझे लगता है कि माँ की मिस कॉल तो है। क्यों?"

"उसने तुम्हारे लिए कोई मेसेज छोड़ा है क्या?"

मैंने उसे फोन पर बात करते हुए सुना। "हाँ।"

"क्या तुमने इसे सुना?"

"नहीं, पापा। आप तो जानते ही हैं कि माँ कैसी है।" नहीं, मुझे नहीं पता था कि वह कैसी थी। वह झल्लाती नहीं थी। वह कोई मांग नहीं करती थी। और फिर भी, शाश्वत ऐसे बात कर रहा था जैसे वह जरूरतमंद और नियंत्रणकारी हो। “मेसेज की बात सुनो और इसे मुझे फॉरवर्ड करो।" मैंने फोन रख दिया और नीलिमा को फोन किया; जो सीधे वॉयस मेल पर चला गया। मैंने उसे मैसेज किया और कहा कि वह प्रियंका का वॉयस मेल सुने और मुझे भेजे। मुझे यकीन था कि उसने दोनों बच्चों के लिए संदेश छोड़ा होगा, और हमारी शादी की बर्बादी का दोष अपने ऊपर ले लिया होगा।

मैंने सगाई की अंगूठी उठाई और उसे अपनी उंगलियों में लपेट लिया। मेरी माँ ने अंगूठियाँ खरीदी थीं और सुनिश्चित किया था कि सगाई के बारे में कर्नाटक के सारे प्रमुख अखबारों मेँ में शादी की घोषणा हो। मुझे वह फोटो सेशन याद है जो मेरी माँ ने आयोजित किया था। प्रियंका उस दिन ‘मेरी प्रियंका’ जैसी बिल्कुल ही नहीं दिख रही थी। माँ ने उनके पार्लर से उसका मेकअप करवाया था और हमारे अमीर समाज की दूसरी लड़कियों की तरह दिख रही थी, इसलिए फोटो शूट के बाद मैं उस पर भड़क गया "ऐसा लग रहा है कि तुम ड्रेस अप खेल रही हो," मैंने चीखते हुए ही कहा था। "यह मेकअप हटाओ। या कम से कम ठीक से करना सीखो ताकि तुम एक वेश्या की तरह न दिखो।" उफ्फ़ मैंने ऐसा कैसे कह दिया था? इस बात को याद कर के मैंने अंगूठी को मुट्ठी में भींच लिया, उसके तीखे कोने चुभे। मैं अच्छी तरह जानता था कि उस दिन बेचारी प्रियंका ने अपना मेकअप थोड़े ही किया था! माँ की पार्लर वाली आई थी जो उसे लीप-पोत कर चली गई थी। उसने चुप-चाप मेकअप करवाया था क्योंकि वे मेरी माँ थीं। जानते हुए भी मैं उस पर भड़क गया था क्योंकि वह ‘मेरी प्रियंका’ लग ही नहीं रही थी, हमारे अमीर समाज की लड़कियों जैसी दिख रही थी। बाद मेँ मैंने उस से इस तरह चिल्लाने के लिए माफ़ी मांगी "तुम मेरी प्रियंका जैसी नहीं दिख रही थीं, इससे मुझे गुस्सा आया।" उसने मेरे गाल सहलाए। "उदास मत हो मेरे प्यारे अंशुमन। मैं मेकअप करना सीख लूँगी। मैं दुनिया की सबसे अच्छी पत्नी बनूंगी, ऐसी कि तुम कल्पना भी नहीं कर सकते।" बाद मेँ बेचारी ने मेकअप करना सीख लिया था। सूक्ष्म और नाजुक मेकअप।

मेरी आँखों में आँसू भर आये। वह सच मेँ ही सबसे अच्छी पत्नी बनी थी जिसकी कोई भी पुरुष कल्पना कर सकता है या चाह सकता है। जब मेरे माता-पिता की मृत्यु हुई, तब भी वह मेरे साथ मेरा हाथ थामे रही, भले ही उन्होंने उसके साथ चाहे जैसा व्यवहार किया हो। वह हमारे बच्चों के लिए हर कदम पर मौजूद रही। वह मेरे काम और मेरी समस्याओं के बारे में अंतहीन बातें सुनती थी, हमेशा मेरे साथ रहती थी। कभी मुझ पर संदेह नहीं किया। उसने मुझे हमेशा मजबूत, बेहतर महसूस कराया। कब से हमारी बातचीत नहीं हुई थी? "हमने एक हफ़्ते से साथ में खाना नहीं खाया है। मैंने होटल मेँ रिज़र्वेशन करवा लिया है ...."

"भगवान के लिए, प्रियंका, मेरे पास काम है। मैं तुम्हारा मनोरंजन नहीं करता रह सकता।"

यह कब हुआ था, कुछ साल पहले? हाँ, जब हमारी कंपनी ने अंतरराष्ट्रीय परियोजनाओं के साथ विस्तार किया, तो मेरा शेड्यूल वैश्विक हो गया था, अंतहीन बैठकें, लंबी यात्राएं और कठिन परिश्रम। मैंने अगले दिन उससे माफ़ी मांगी क्योंकि मैं उसके साथ नहीं सोया था, रात में काम करने और गेस्ट रूम में सोने का विकल्प चुना था। क्या यह पहली बार था जब मैंने ऐसा किया था? एक दरार जो मैंने खुद बनाई थी। "कोई बात नहीं अंशुमन," उसने बिना कोई गुस्सा दिखाए कहा। "तुम व्यस्त हो; मुझे थोड़ा और सोच-समझकर प्लान करना चाहिए था। क्यों न मैं कढ़ाई पनीर बनाऊं।" मुझे यह पता था कि मैंने उसे चोट पहुंचाई है। लेकिन उसे इससे कोई मतलब नहीं था, इसलिए मैंने अपने आप से दिखावा किया कि मेरा आधा-अधूरा कहना कि "मुझे खेद है कि मैं तनाव में हूं" काफी था।

तभी मेरा फ़ोन बजा और मैंने देखा कि ग्रुप कॉल था। "क्या बकवास है, पापा?" शाश्वत ने कहा। "क्या आपको पता था?" नीलिमा ने पूछा। हाँ, मुझे अंदर से पता था, भले ही मैं इसे देखना या इस पर विश्वास करना न चाहता होऊँ। "उसने मेरे लिए एक चिट्ठी छोड़ी है।"

"पत्र?" शाश्वत ने गुस्से से चिल्लाते हुए कहा। "आप जानते हैं कि मैं माँ से प्यार करता हूँ, लेकिन वह बहुत ही – बहुत ही चिड़चिड़ी और आक्रामक हो सकती है...." चिड़चिड़ी? आक्रामक? क्या मेरा बेटा मेरी पत्नी, अपनी माँ को यह कह रहा था? प्रियंका कभी भी ऐसी नहीं थी। वह कभी भी आक्रामक नहीं थी। वह प्यार करने वाली और विनम्र थी।

नीलिमा ने चिंता भरी आवाज़ में कहा। "मैंने फ़ोन करने की कोशिश की लेकिन---" "उसका फोन यहीं है, बंद है।" मैंने वह आईफोन उठाया जो उसने पत्र के पास छोड़ा था।

शाश्वत ने गुस्से में कहा, "ठीक है, जब माँ क्रेडिट कार्ड आदि इस्तेमाल करें तो आप क्रेडिट कार्ड कंपनियों को फोन कर देना।" मैंने उनसे कहा, "वह उन्हें भी यहीं छोड़ गई है।"

"क्या? क्यों?" नीलिमा हताश सी बोली। मुझे पता था क्यों। मैंने खाते से पाँच हज़ार रुपये निकाले हैं। मुझे पता है कि हमारे प्री-नेपुटल समझौते में क्या लिखा है, जल्द से जल्द वापस कर दूँगी। "क्या आपको कोई अंदाज है वह कहाँ जाएंगी?" नीलिमा ने पूछा।

"वह वापस आ जाएंगी" शाश्वत ने बड़बड़ाते हुए कहा। "यह सब ड्रामा क्वीन होना है।"

"शाश्वत, बेटा, बस। चुप रहो। मैं समझ सकता हूँ तुम नाराज़ हो, लेकिन वह तुम्हारी माँ है, है न? सम्मान से बात करो।"

"क्या आप नाराज़ नहीं हैं, पापा?" शाश्वत ने पूछा। "वह हम सब को छोड़कर चली गई हैं।"

क्या सच ही वह हमें छोड़ गई थी? या हम तीनों उसे सालों पहले छोड़ गए थे? उसे अपने बच्चों के लिए वॉयस मैसेज छोड़ना पड़ा था, क्योंकि वे उसकी कॉल का जवाब नहीं देते थे। लेकिन उन्होंने मेरी कॉल का जवाब दिया था। मुझे भी पत्र छोड़ा, क्योंकि मैं उसके बहुत से मेसेज मिस कर चुका था, इसलिए उसने मुझे संदेश भेजना बंद कर दिया था। वह शायद ही कभी फोन करती थी। कार्य दिवस के दौरान, मेरा फोन काव्या को फॉरवर्ड होता था, जो मुझे कॉल भेजती थी। मैंने उसे कभी नहीं कहा कि मेरी पत्नी के कॉल को प्राथमिकता दे; मुझे यह भी नहीं पता था कि प्रियंका काम के घंटों के दौरान कॉल करती है या नहीं।

"नहीं शाश्वत, तुम्हारी माँ हमें छोड़ कर नहीं गई बेटे। हम तीनों ही ने बहुत पहले उसे पीछे छोड़ दिया, यही सच है। वह अकेली ही इतने सालों से, हमारे बुरे बर्ताव के बावजूद, हमारे रिश्तों को अकेले उठाए जीती रही। आज आखिर उसने हार मान ही ली। न मैंने, न तुम दोनों ने कई वर्षों से उसकी सुध ली। पिछली बार कब हममें से किसी ने उसका फोन उठाया, उससे एक परिवार के सदस्य की तरह बात की, उसके मेसेज का जवाब दिया या उससे प्रेम के दो शब्द बोले? वह हमारी हर तकलीफ मेँ हमारा सहारा बनी लेकिन क्या हम तीनों मेँ से किसी ने कभी भी उसके सुख दुख की या उसकी बीमारी वगैरह की कोई खबर भी ली? नहीं शाश्वत, मैं बहुत दुखी हूँ बेटा, लेकिन नाराज़ नहीं हूँ।"

"माँ ने आपको क्या लिखा था?" नीलिमा की आवाज़ में आँसू थे। मैंने पत्र की तस्वीर उन्हें भेज दी। शाश्वत ने कहा, "मुझे विश्वास नहीं हो रहा कि माँ ने हम पर यह बम फेंका।" वह अभी भी गुस्से मेँ था, जैसे उसने मेरी बात सुनी ही न हो।

"शाश्वत, बस।" मैंने विरोध किया। "मुझे इस बारे में सोचना होगा। मैं... शुभ रात्रि। मैं कल फ़ोन करूँगा।" मैं रसोई में गया और फ्रीजर खोला। बड़े करीने से रखे हुए, खाने के अलग-अलग हिस्से थे। उसने अपने सुंदर कर्सिव हाथ से लेबल पर लिखा था कि प्रत्येक व्यंजन क्या है, भोजन को कैसे कितने तापमान पर कितने मिनट गर्म करना है, और तारीख। उसने मेरे लिए स्वस्थ चीजें बना कर रख छोड़ी थीं। फ्रिज में सलाद को कांच के जार में भरकर रख दिया था, सभी पर बड़े करीने से लेबल और तारीख लिखी हुई थी।

"हम तुम्हारी माँ के झोंपड़ पट्टी में नहीं रहते, प्रियंका; हम ऐसा खाना नहीं खाते। क्या हम कुछ मछली, सलाद, हरी सब्जियाँ खा सकते हैं?" जब हमने पहली बार अपना अलग घर बसाया तो एक दिन मैंने उसके बनाए खाने पर चिल्लाते हुए कहा था। तब बच्चे डेढ़-दो साल के थे। पहले हम मेरे पारिवारिक घर मेँ ही रहे थे। वह शादी के बाद से ही अलग घर के लिए विनती कर रही थी, लेकिन मुझे सहमत होने में इतना समय लग गया। जबकि मैं जानता था कि मेरी माँ उससे दुर्व्यवहार करती है, वहाँ उसका दम घुट रहा है।

जब मैंने फ्रीजर में रखे खाने को देखा तो मेरे गालों पर आँसू बहने लगे। यह उस प्यार करने वाली पत्नी की देखभाल का अंतिम कार्य था जो अपने ही घर में खुद को अदृश्य महसूस कर रही थी। यह उस रोज़मर्रा के प्यार की मार्मिक याद दिलाता था जो उसने दिखाया था, ऐसा प्यार जिसे मैंने हल्के में लिया था। जाते हुए भी वह मेरे दो हफ्ते के भोजन का इंतजाम करना नहीं भूली, जिससे तब तक मैं खानसामा का इंतजाम कर सकूँ। उसे यह सब करने में घंटों लग गए होंगे। क्या उसने यह कल किया था? या परसों हमारी शादी की सालगिरह पर, जो मैं भूल गया था? मैं डाइनिंग रूम में गया और उसने मेरे लिए जो उपहार छोड़ा था, उसे देखा। जिसे मैंने खोलने की तक जहमत नहीं उठाई थी। मैं कम से कम उसे खोलकर उसका शुक्रिया अदा तो कर सकता था; इसके बजाय, मैंने उससे कहा कि मुझे काम पर जाना है और मैं गेस्ट रूम में सोता हूँ। फिर से सालगिरह भूल जाने के बाद भी! मेरा कोई दोस्त सालगिरह भूल गया होता तो पत्नी के आगे नाक रगड़ रहा होता, और मैंने कहा था मैं उस कमरे मेँ सोऊँगा। मैंने उपहार खोला, मेरा दिल तेजी से धड़क रहा था। यह एक घड़ी थी। एक रोलेक्स। लेकिन कोई भी रोलेक्स नहीं। यह उसी मॉडल की घड़ी थी जो मेरे पिता ने मुझे दी थी, जिसे मैंने सालों पहले खो दिया था जब हम न्यू-ऑरलियन्स में हमारी सालगिरह के लिए घूमने गए थे। मैं इसे खोने से बहुत दुखी था।

"मुझे बहुत खेद है, अंशुमन। आप एक नई घड़ी खरीद सकते हैं ---"

"तुम्हें नहीं पता कि तुम क्या बकवास बात कर रही हो। यह एक पारिवारिक विरासत है - 1935 का बेहतरीन ऐतिहासिक मॉडल - तुम नहीं समझ सकोगी यह सब।" मैंने खुद को बेहतर महसूस कराने के उसके प्रयासों को क्रूरता से बंद कर दिया। क्या मैं उसके साथ एक बिगड़ैल अमीर बच्चे की तरह व्यवहार नहीं करता रहा था? घड़ी उसने नहीं, मैंने गुमाई थी, और बच्चों की तरह मैं अपनी खीज उस पर उतार रहा था। हाँ, मुझे यह कहने में शर्म आ रही है लेकिन यही सच था। वह मुझ पर गुस्सा नहीं हुई, आवाज नहीं उठाई, कोई विरोध नहीं किया, लेकिन मैं जब रात मेँ बाथरूम जाने के लिए उठा तो उसके सोये चेहरे पर आंसुओं के निशान थे – जिसे मैंने अपने अहंकार मेँ अनदेखा कर दिया था। मैंने अगले दिन माफी भी नहीं मांगी थी, जैसे मैं उसे सजा दे रहा था कि उसने यह यात्रा आयोजित की, जिसके कारण मेरी घड़ी गुम हो गई। मेरे मन के विकृत तर्क के अनुसार उसे सजा मिलनी ही चाहिए थी, क्योंकि मेरा प्यारा खिलौना जो गुम हो गया था उसकी बनाई यात्रा मेँ।

मैंने घड़ी निकाली। उसे इसे खोजने में बहुत समय लगा होगा। वे ऐतिहासिक मॉडल दुर्लभ थे। यह उससे बेहतर थी जो मैंने खो दी थी। इसका सोने का केस एक नरम इतिहास की चमक से चमक रहा था। रोमन अंकों से चिह्नित हाथी दांत का डायल, फ़्लूटेड बेज़ल फ़्रेम! संयमित विलासिता की विरासत को दर्शाता हुआ। घड़ी के साथ लिखे नोट में लिखा था: ‘मेरे प्यारे अंशुमन, मैं जानती हूं कि जो घड़ी तुमने खो दी है, उसकी भरपाई मैं नहीं कर सकती, लेकिन मुझे उम्मीद है कि यह घड़ी तुम्हारे दिल को सुकून देगी’ मैंने घड़ी पहन ली और मुझे दुःख की लहर महसूस हुई। मैंने खुद ही अपनी घड़ी खो दी और इसके लिए उसे दोषी ठहराया। जैसे कि मैं अपने जीवन में होने वाली लगभग हर गलती के लिए उसे जिम्मेदार ठहराता था। यह एक आदत बन चुकी थी। मैं उसे हमेशा से ही दोषी ठहराता रहा हूँ, है न?

ऐसा क्यों, जबकि उसने मुझे दो खूबसूरत बच्चे दिए थे, एक घर जो एक शान्त मंदिर जैसा था, एक प्यार जिस पर मैं हमेशा भरोसा कर सकता था? उसका शुक्रिया अदा करने के बजाय, मेरा एक हिस्सा उससे नाराज़ रहता था कि उसने मुझे मेरी माँ की पसंद की लड़की से शादी न कर के उसके साथ “फंसा” दिया! क्या यह मेरी माँ की ही बातें नहीं थीं, जो मेरे मन मेँ इतनी गहरी धंस गई थीं कि मैं उन जैसा ही बन गया था? मैं शुरू मेँ यह इसलिए करता था कि माँ को यह दिखा कर कि ‘देखो मैं इस पर गुस्सा कर रहा हूँ’ उन की नाराजगी दूर कर सकूँ, लेकिन धीरे-धीरे यह मेरी आदत हो गया, वह मेरे लिए एक गुस्सा उतारने की वस्तु हो गई। उसने कभी विरोध नहीं किया और मैंने यह अपना अधिकार समझ लिया।

उस रात मैं बिस्तर पर प्रियंका की तरफ सोया और उसकी खुशबू महसूस करता रहा। उसकी खुशबू प्रियंका जैसी थी, बिल्कुल उसके नाम की तरह। उसके साथ इस बिस्तर पर लेटने की यादें मुझ पर हमला करती रहीं - मेरी भावुक प्रियंका। हमारा समागम कभी उबाऊ नहीं हुआ। मेरे दोस्त नई लड़कियां पाने के बारे में बात करते थे, लेकिन मैंने कभी नहीं की, मुझे कभी ऐसी जरूरत नहीं लगी क्योंकि घर पर मेरी पत्नी मेरा इंतज़ार करती थी। चाहे मैं उसे कितना भी अनदेखा करूँ या उसके बारे में भूल जाऊँ, जब भी मुझे उसकी ज़रूरत होती, वह अपनी बाँहें फैला देती और मुझे अपने अंदर समाने देती, मुझे वह शांति महसूस होती जो सिर्फ़ वही मुझे दे सकती थी। जब मुझे उसका स्नेह और उदारता याद आई, तो मेरा दिल इतने टुकड़ों में टूटने लगा, कि मुझे लगा कि मैं उन्हें फिर से नहीं जोड़ पाऊँगा। मैंने अपने जीवन का प्यार खो दिया। उस एकमात्र संगिनी को खो दिया जिसने मेरे दिल को थामा था, जिसने मुझसे जितना लिया उससे कहीं ज़्यादा मुझे दिया था।




गुरुवार, 4 दिसंबर 2025

ज़िंदगी अधूरी तेरे बिन - भाग तीन (03)

 

ज़िंदगी अधूरी तेरे बिन - भाग  तीन  (03)


भाग 3
प्रियंका



मैंने जाने के पहले दोनों बच्चों को फ़ोन किया, और दोनों ने फ़ोन नहीं उठाया। मुझे उम्मीद भी नहीं थी कि वे फ़ोन उठाएंगे। मैंने एक वॉइस मेल छोड़ा, जबकि उन दोनों ही ने मुझे ऐसा न करने के लिए कहा था क्योंकि "आजकल कोई भी वॉइस मेल नहीं छोड़ता, माँ।" लेकिन मुझे जो कहना था उसे टेक्स्ट मेसेज पर कहना गलत लगा।

"शाश्वत, बेटा, मैं जानती हूँ कि तुम व्यस्त हो, और तुम्हें परेशान करने के लिए मुझे दुख है। मैं तुम्हें सिर्फ़ यह बताना चाहती थी कि मैं जा रही हूँ ... तुम्हारे पापा को छोड़ कर। मैं ... शायद यह मेरी ही गलती है। यह तुम्हारे लिए जितनी आश्चर्य की बात है, उतनी ही उनके लिए भी। मुझे थोड़ा समय चाहिए। एक बार मैं व्यवस्थित हो जाऊँ, फिर संपर्क करूँगी। मुझे पता है कि तुम इस बात पर नाराज़ होगे, लेकिन अब मैं यहाँ और नहीं रह सकती। .... इसके लिए मुझे माफ़ कर देना बेटा। मैं तुमसे बहुत प्यार करती हूँ।"

फिर मैंने नीलिमा के लिए भी ऐसा ही एक संदेश छोड़ा।

अंशुमन को फ़ोन करने का कोई मतलब नहीं था। जब वह दफ़्तर में होता था, तो उसका सेल फ़ोन सीधे काव्या के पास चला जाता था, और वह हमेशा विनम्रता से मुझसे कहती थी कि अंशुमन व्यस्त है और पूछती थी कि क्या मैं कुछ मैसेज छोड़ना चाहती हूँ। मैं नहीं छोड़ती थी, क्योंकि जब पहले-पहले मैंने संदेश छोड़ा था, तो अंशुमन ने मुझसे कहा था कि वह काम पर परेशान नहीं होना चाहता जब तक कि कोई आपातकालीन स्थिति न हो।

मैंने सालगिरह के दिन अंशुमन को फ़ोन किया था, और काव्या के पास संदेश भी छोड़ा था। टेक्स्ट भी भेजा था। आखिरी उम्मीद थी कि वह याद रखेगा और कुछ कहेगा, कुछ करेगा, मुझे वह फ़ैसला लेने से रोकेगा जिसे लेने में मैं हिचकिचा रही थी, हालाँकि मुझे पता था कि मुझे यह करना ही था। लेकिन काव्या ने हमेशा की तरह मेरी कॉल को उस तक पहुँचने ही नहीं दिया। अंशुमन ने टेक्स्ट संदेश भी मिस कर दिया, जैसे उसने इन वर्षों के दौरान मेरे कितने ही संदेशों को मिस कर दिया था। मेरा सालगिरह का उपहार टेबल पर ही पड़ा हुआ था मुझे मुंह चिढ़ाता हुआ था, अंशुमन ने खोल कर भी नहीं देखा था।

नीलिमा को कॉल करके वॉयस मेसेज भेजने के बाद, मैंने अपना फ़ोन डाइनिंग टेबल पर लिफ़ाफ़े के बगल में रख दिया, जिसमें अब मेरी पिछली ज़िंदगी की कहानी थी। मैंने उस घर को देखा जिसे मैंने पिछले पंद्रह सालों से अपना घर बनाया था, वह घर जो अब एक एकाकी जेल बन गया था, जहाँ अकेलापन मुझे खा रहा था। ऐसा नहीं था कि हमारा सारा जीवन ऐसा रहा हो, बहुत सी सुखद यादें भी थीं। लेकिन जब से बच्चे बाहर चले गए थे तब से अंशुमन काम मेँ और व्यस्त हो गया था, और मैं और भी अकेली हो गई थी।

मुझे कोई पछतावा नहीं था - इस बात का भी नहीं कि मैं क्या या कैसे कर रही थी। यह मैं ‘अपने’ लिए कर रही थी, उस तरीके से जो मुझे सही लगता था। अपने परिवार की सेवा करने के बीस साल बाद, मैंने अपने मन की शांति के लिए अकेले गायब होने का अधिकार अर्जित कर लिया था। मेरे मनोचिकित्सक के अनुसार भी मुझे या तो अपनी भावनाएं व्यक्त करनी चाहिए, या इस माहौल से निकलना चाहिए। इस तरह अवसाद मेँ जीना अच्छा नहीं था।

जब मैं अपनी कार में पेट्रोल भरने के लिए पेट्रोल पंप पर रुकी, तो मैंने अपने नए स्मार्टफोन से श्रेया को संदेश भेजा, जिसे मैंने पिछले हफ्ते ही अमेजन से खरीदा था और जो पुराने मॉडल का होने के कारण सस्ता मिला था।

अंशुमन और मेरे प्री-नेपुटल के अनुसार, अगर मैंने तलाक मांगा, तो मैं साथ कुछ नहीं ले जा सकती। अंशुमन की माँ ने मुझे बार-बार यही कहा था, और अंशुमन भी कई बार मुझे यही कह कर चिढ़ाता था। मुझे दुख होता था कि वह सोचता है कि मैं उस बेवकूफी भरे समझौते की वजह से उसके साथ थी, जबकि सच्चाई तो यह थी कि मैं उसके साथ सिर्फ अपने प्यार के कारण थी। उन्होंने जो भी मेरे सामने रखा, मैंने उस पर हस्ताक्षर कर दिए क्योंकि मुझे पैसों की परवाह नहीं थी। मैं अपने जीवन के प्यार से शादी कर रही थी, मुझे परवाह नहीं थी कि वह राव-सिन्हा था या कोई अदना कर्मचारी। वह बस मेरा प्यार था।

मैंने सोचा कि मुझे यह बात भी नोट में जोड़ देनी चाहिए थी। लेकिन मुझे याद ही नहीं था, ऐसी कितनी ही बातें थीं! शायद मुझे यह भी कहना चाहिए था कि मैं उसे कार के पैसे वापस कर दूंगी, या वह कार वापस ले ले। मैं मर्सिडीज़ नहीं खरीद सकती थी, भले ही वह पुरानी हो। मैं इतनी महंगी गाड़ी के बीमा का भुगतान भी नहीं कर सकती थी।

शाश्वत ने कई बार कहा था, "आपको एक नई कार लेनी चाहिए, माँ। यह तो खटारा है।"

"मेरे लिए यही ठीक है," मैंने उससे कहा। मैंने शाश्वत को मेरी पीठ पीछे अपनी बहन के साथ हंसते हुए सुना था। "बूढ़ी और पिटी हुई कार। शायद यह माँ के लिए ठीक ही है।" मैं अपने बच्चों के साथ इतनी गलत कैसे हो गई? मैंने उन्हें बेहतर तरीके से क्यों नहीं पाला-ताकि वे अपनी माँ का उसी तरह सम्मान करें जैसे वे अपने पिता का करते हैं? मेरे मनोचिकित्सक ने बताया था, "बच्चे अक्सर पिता के व्यवहार के आधार पर माँ का मूल्यांकन करना सीखते हैं, यह उस उम्र के दौर की बात है।"

अरे हाँ, मैंने एक साल पहले मनोचिकित्सक डॉ. मिश्रा से मिलना शुरू किया था। जब मैंने अपने घरेलू चिकित्सक को नींद आने में परेशानी का बताया था, तब उन्होंने नींद की गोलियां दी थीं। एक सुबह जागने के बाद तीव्र इच्छा थी कि काश मैं फिर कभी न उठूँ, उस दिन मैंने उन नींद की गोलियों को लालच से देखना शुरू कर दिया था। जब मैं गाड़ी चलाती, तो मेरा मन करता कि मैं उन दुर्घटनाओं में क्यों नहीं फँस सकती, जिनमें किसी की मृत्यु हो जाती है। श्रेया की बीमारी अपने ऊपर क्यों नहीं ले सकती जिससे वह जीवित रह सके, क्योंकि मैं वास्तव में अब जीना नहीं चाहती थी। तब मैंने डॉ. मिश्रा से मिलना शुरू किया था। उन्होंने बताया कि मैं अवसाद ग्रस्त हूँ, मुझे अवसाद रोधी दवाएँ दीं। मैं चुपके से दवाइयाँ लिया करती थी, जो मेरे लिए बिल्कुल मुश्किल नहीं था क्योंकि मैं हमेशा अकेली ही रहती थी। दवा ने मुझे स्थिर होने में मदद की, और डॉ. मिश्रा के साथ बातचीत ने मुझे इस जीवन बदलने वाले निर्णय तक पहुँचने के लिए स्पष्टता दी; अपने पिछले जीवन को पीछे छोड़ कर एक नए जीवन की शुरुआत करना, जो मेरे लिए हो, जहाँ मैं हमेशा दूसरों ही के लिए कुछ न करती रहूँ। जिस जीवन मेँ मैं वह सब करने में सक्षम होऊंगी, और करूंगी जो मुझे खुशी दे। मैं स्वतंत्र हो जाऊंगी और अपना सर्वश्रेष्ठ जीवन जीऊँगी। फिर आँसू क्यों बह रहे थे?

मैं लक्षद्वीप में अपनी दोस्त श्रेया के सनशाइन होम्स रिज़ॉर्ट को चलाने वाली थी। यह एक छोटा सा समुदाय था - ऑफ-सीज़न में केवल पाँच-छह सौ लोग होते होंगे। यह एक बहुत शांति और सुकून प्रदान करने वाला स्वप्न था। हालांकि, पीक सीज़न के दौरान, काफी संख्या मेँ पर्यटक सनशाइन होम्स में आते थे। समुद्री रास्ते से वहाँ गाड़ी ले जाना संभव था, और मैं कार का इंतजाम कर के चली थी।

एक बार, जब वह कैंसर से जूझ रही थी, तब मैं कीमो के समय उस से मिलने गई थी। तब मैंने अंशुमन को भी साथ ले जाने की कोशिश की थी। "एक बार चलो तो सही, अंशुमन। वहाँ सब कुछ बहुत सुंदर है।" मैं स्टडी के बाहर खड़ी थी, क्योंकि काम करते समय उसे कोई व्यवधान नहीं पसंद था। अंशुमन ने अपने कंप्यूटर से नज़र नहीं उठाई। "मैंने कहा था, बेबी, मैं नहीं निकल सकता। तुम घूम आओ और अपनी दोस्त के साथ खूब मज़े करो।" घूमना? अच्छा समय? वह जानता था कि मैं अपने दोस्त को कीमोथेरपी लेते हुए देखने और उसका ध्यान रखने, उसकी तीमारदारी करने जा रही थी। मैं उसे बताना चाहती थी कि मुझे उसकी ज़रूरत है क्योंकि पूरी दुनिया में अपने एकमात्र दोस्त को इस तरह कैंसर से खोते हुए देखना मेरे लिए भावनात्मक रूप से बहुत मुश्किल था। लेकिन अंशुमन को श्रेया पसंद नहीं थी। नहीं, यह गलत था। वह उसे जानता ही नहीं था। उसने कभी उसे जानने की भी जहमत नहीं उठाई। मुझे शक था कि उसके पास उसका फ़ोन नंबर भी होगा या यहाँ तक कि उसे उसके रिसॉर्ट का नाम भी पता होगा। मुझे शक था कि उसे यह तक पता हो कि वह किस शहर में रहती है, जहाँ मैं अब रहूँगी, सिवाय इसके कि रिसॉर्ट एक समुद्र तट पर था।

वैसे भी, मुझे उम्मीद नहीं थी कि वह मुझे ढूँढने की कोशिश करेगा। शायद इसीलिए मैंने उसके पास मुझसे संपर्क करने का कोई रास्ता नहीं छोड़ा था। इस तरह, जब वह मुझसे संपर्क नहीं करेगा तो मुझे बुरा नहीं लगेगा। इस तरह से मैं अपने आप से झूठ बोल सकती थी, दिखावा कर सकती थी कि वह तो आना चाहता है, लेकिन मैंने यह विकल्प नहीं छोड़ा है।

मैंने अपनी कार के म्यूजिक सिस्टम पर अपनी पसंदीदा प्ले लिस्ट लगाई और गाने सुन-सुन कर आहें भरी। मुझे जल्द ही स्पॉटिफाय के लिए अपनी अलग सदस्यता लेनी होगी। सब कुछ खुद ही करना होगा। मैं नहीं चाहती थी कि अंशुमन को लगे कि मैंने उससे और उसके परिवार से कुछ भी छीना है। उसकी माँ ने इस बारे में कई बार स्पष्ट रूप से कहा था। जबकि उन्होंने मुझे मेरी ‘दुर्भाग्यपूर्ण जड़ों और परिस्थितियों’ के बावजूद सबसे अच्छी पत्नी बनने के लिए प्रशिक्षित किया था। वह हमेशा उस प्री-नेपुटल समझौते की बात करती रहती थीं। आर्थिक और भावनात्मक रूप से मेरी परिस्थितियाँ बहुत अच्छी नहीं थीं। मैं एक शराबी माँ के साथ एक झोंपड़ पट्टी में पली-बढ़ी। मेरे पिता बहुत पहले ही चले गए थे। उस गरीबी मेँ बड़ी होते हुए मैंने खुद से वादा किया था कि मैं पढ़ाई में कड़ी मेहनत करूँगी, पहले सरकारी कॉलेज और फिर विश्वविद्यालय जाऊँगी। मैं अपने परिवार में पहली महिला बनूँगी जिसे डिग्री और नौकरी मिलेगी जैसा कि मैंने टेलीविजन पर सफल महिलाओं को देखा था। मैं बिजनेस सूट पहनूँगी, अपने बालों को एक स्लीक बॉबकट में कटवाऊँगी, स्वतंत्र रहूँगी। लेकिन कुछ भी नहीं कर पाई थी। नहीं सोचा था कि अठारह साल की उम्र में मेरी शादी हो जाएगी और तुरंत मैं गर्भवती हो जाऊँगी। शादी के तुरंत बाद ही गर्भ धारण से अंशुमन खुश नहीं था। "मुझे समझ में नहीं आता कि तुम गर्भनिरोधक गोलियाँ क्यों नहीं लेती हो।"

"मैंने अभी-अभी इन्हें लेना शुरू किया है, अंशुमन, और मेरी डॉक्टर ने कहा है कि इन्हें ठीक से काम करना शुरू करने में एक महीने का समय लगता है," मैंने माफी मांगी थी, जैसे कि यह सिर्फ मेरी गलती थी, जैसे कि वह खुद ही वह व्यक्ति नहीं था जिसने मुझे असुरक्षित छोड़ा था। अंशुमन को देखकर ऐसा लग रहा था जैसे उसे मौत की सज़ा सुनाई गई हो। जैसे मैं अकेली ही माँ बन रही हूँ। मैं बहुत खुश थी। उसकी माँ बिल्कुल खुश नहीं थीं। उसका भाई मुझे देखते ही नफरत करने लगा था। उसके भाई की गर्लफ्रेंड, जो अब उसकी पत्नी है, ने मुझे लालची कहा था। सब यही सोच रहे थे (और दबी आवाज मेँ कह भी रहे थे) कि अमीर लड़के को फंसा कर उस घर मेँ शादी करने के बाद, मुझे डर था कि पति तलाक न दे, इसलिए मैं जान बूझ कर इतनी जल्दी माँ बन गई थी। मैंने यह सब इसलिए सहा क्योंकि मैं अठारह साल की थी, गर्भवती थी, डरी हुई थी, और पागलों की तरह प्यार में थी।

मैं सर्वश्रेष्ठ ‘श्रीमती अंशुमन राव-सिन्हा’ बनी, पति और बच्चों मेँ ही खो गई, अपनी पढ़ाई वगैरह के बारे मेँ बिल्कुल भूल गई। और अंशुमन – वह ऐसा पिता बना, जिस की कोई भी बच्चा कामना कर सकता हो। वह बच्चों से बहुत प्यार करता था, लेकिन मुझसे? हमारी दसवीं शादी की सालगिरह पर मैंने एक बेबी-सिटर रखा और एक फैंसी रेस्तराँ में रोमांटिक शाम और एक रात की योजना बनाई। उस रात मैंने पूछा - "क्या तुम मुझसे खुश हो?" उसका जवाब था "यही जीवन है, प्रियंका, जितना हो सके उतना खुश रहो।" मुझे लगा कि इसका मतलब यह है कि वह खुश नहीं है। मैंने फिर कभी इस बारे में बात नहीं की। उसने भी कभी अपनी बात को नहीं समझाया। इसके बजाय, मैंने उसे खुश करने के लिए खुद को और भी बेहतर पत्नी बनाने के लिए पूरी तरह लगा दिया।

खैर, गरीबी से आई प्रियंका सिंह, यह तो वैसा नहीं हुआ जैसा तुमने सोचा था, है न? मैं कार चलाते हुए अपने आँसू पोंछ रही थी। मैं उसे, या यहाँ तक कि खुद को भी, खुश रखने में कभी सफल नहीं हुई। हमारे बच्चे, जो बड़े होने तक मेरे थे, अब पूरी तरह अंशुमन के हो गए थे। मैं उन्हें फूटी आँखों नहीं सुहाती थी। जब मैंने शाश्वत को विश्वविद्यालय में फोन किया तो उसने मुझ पर चिल्लाते हुए कहा, "भगवान के लिए, ऐसी चिपकू मां बनना बंद करो।" और नीलिमा की सलाह थी - "मैं ठीक हूं, मां। आपको अपनी जिंदगी जीनी चाहिए और हमारी चिंता करना बंद कर देना चाहिए।" जब मैंने अंशुमन को बताया कि बच्चे मेरे साथ रिश्ता नहीं रखना चाहते, इस बात से मुझे कितना दुख होता है, तो उस ने इसे अनदेखा कर दिया, हमेशा की तरह। “प्रियंका, वे व्यस्त हैं; बस इतनी ही बात है।"

लेकिन वे उसके लिए तो व्यस्त नहीं होते थे, मैं सुन पाती थी कि वे फ़ोन पर बातें कर रहे हैं, या वीडियो कॉन्फ्रेंस पर हंसी मजाक कर रहे हैं। यहां तक कि जब वे आते, तो अंशुमन और बच्चे खाने की मेज पर बातें करते, जबकि मैं चुपचाप बैठी रहती, अपने परिवार को गर्व से देखती हुई, जैसे कि मैं उनके कितने करीब हूँ। अदृश्य रहने की आदत हो गई थी। और कुछ समय बाद यह आरामदायक हो गया, एक लबादे की तरह जिसे मैं अक्सर पहने रहती थी। हम काम के दौरान रात्रिभोज और पारिवारिक कार्यक्रमों में जाते थे, और मैं सही ढंग से कपड़े पहनती थी, जब मुझसे बात की जाती थी तो बोलती थी और बाकी समय दीवार पर लगे वॉलपेपर की तरह गायब हो जाती थी।

ओह, मैंने फुसफुसाहटें सुनीं। बहुत सी दबी आवाज़ें, कुछ सी उड़ाती हुई, कुछ तरस खाती हुई। चालीस साल की उम्र में अंशुमन एक खूबसूरत और अमीर आदमी था। अड़तीस की उम्र में मैं अपनी उम्र की दिखने लगी थी। मैंने डिजाइनर कपड़े खरीदना और पहनना सीख लिया था, सही तरीके से खाना खाने का तरीका सीख लिया था और खाने के साथ वाइन का मज़ा लेना सीख लिया था, लेकिन अंदर से मैं अभी भी गरीब झोंपड़ पट्टी की परवरिश में से आई हुई एक डरी हुई लड़की प्रियंका सिंह थी, वही झोंपड़ पट्टी जिसे कुछ साल पहले शहर ने स्वास्थ्य के लिए खतरनाक होने के कारण तोड़ दिया था।

"अरे, वह बिस्तर मेँ अच्छी होगी। जानती हो न, वह किस गंदगी से आई है, सोचो कैसी होगी" .... "जरा सोचो तो, राव-सिन्हा का बेटा, झोंपड़ पट्टी के कचरे से शादी कर रहा है?" .... "वह उसके साथ कैसे रह पाता है? मैंने सोचा था कि वह अब तक उस झोंपड़ पट्टी वाली से आगे बढ़ गया होगा।" .... "तुम्हें पता है न कि उसने उसे फँसाया है? उसने अपनी माँ का विरोध कर के उससे शादी कर ली। इससे पहले कि वह कुछ समझ पाता वह गर्भवती हो गई। नहीं हुई होती तो वह तलाक न दे देता?" .... "वह उससे दूर जा रहा है, है न? मैंने सुना है कि किसी ने उसे मैरियट में...(किसी के साथ) देखा था।"

अफवाहों के अनुसार, मेरे पति का हमेशा किसी न किसी के साथ संबंध रहा है। मुझे इस पर कभी यकीन नहीं हुआ। मैंने अंशुमन से भी नहीं पूछा, क्योंकि ऐसा करना हमारी शादी का अपमान जैसा लगता। और पूछने का मतलब हो सकता था एक ऐसा जवाब सुनना जो मेरा दिल तोड़ सकता था। जब मेरी आँखें भारी हो गईं तो मैंने कार की खिड़की नीचे कर दी, ताकि ठंडी हवा मुझे जगा सके। मैंने साउंड सिस्टम की आवाज़ बढ़ा दी और जितना हो सके उतनी ज़ोर से गाना गाया। "सब कुछ खो दिया...." हाँ, मेरे लिए यह गाना बहुत उपयुक्त था, क्योंकि मैंने सब कुछ खो दिया था, ताकि खुद को पा सकूं।

बुधवार, 3 दिसंबर 2025

ज़िंदगी अधूरी तेरे बिन - भाग दो (02)

ज़िंदगी अधूरी तेरे बिन - भाग दो (२ )



अंशुमन


उफ्फ़। मैंने फिर एक बार वही गलती कर दी।

मैं अपनी शादी की बीसवीं सालगिरह तक भूल गया। धिक्कार है मुझ पर। और काव्या को भी तो मुझे ऐसी बातें याद दिलानी चाहिए थीं। वह मेरी असिस्टेन्ट है, यह उसका काम है। लेकिन वह कार्यकारी सहायक है, निजी सहायक नहीं। फिर भी, मुझे उसे आगे के लिए यह बताना होगा। उसने मेरे बिजनेस के काम में मेरी इतनी मदद की, जो अमूल्य था, कि ऐसी बातों के लिए उसे कहना ठीक नहीं लगता था। यह मेरा निजी जीवन था, काम नहीं। जिस काम के लिए उसे नौकरी पर रखा गया था, वह काम उसने बहुत अच्छी तरह से किया है, और हमेशा करती रही है। मैंने हमारे ग्रुप चैट पर बच्चों को संदेश भेजा, उस ग्रुप पर जहां प्रियंका नहीं थी। क्या तुमने अपनी मां को हमारी शादी की सालगिरह पर बधाई दी?

शाश्वत: क्या आज शादी की सालगिरह थी?

नीलिमा: नहीं। पापा, आप भी भूल गए क्या?

तो क्या प्रियंका के अलावा किसी को भी हमारी सालगिरह याद नहीं रही थी? एक बार, जब मैं एक और सालगिरह से चूक गया था, तो मैंने अपनी शर्मिंदगी को यह कहकर छुपाया था कि ‘खराब विवाह वाले लोगों को ऐसे अवसरों को याद रखने और मनाने की ज़रूरत है, न कि हमें, जो एक बेहतरीन विवाह मेँ जी रहे हैं’ तब मैंने कुछ उपहार लेकर इसकी भरपाई की थी। उसके बाद भूलने का सिलसिला सा शुरू हो गया, मेरी तरफ से। वह कभी नहीं भूली, न कभी नाराज हुई। मुझे लगता है कि मैं इस बार भी ऐसा ही कर सकता हूँ।

मैं: हाँ। तुम्हारी माँ इंतज़ार कर रही थी, और मेरे पास नए प्रोजेक्ट मेँ संकट था।

शाश्वत: हुँह - कुछ नहीं होता पापा। माँ ठीक हो जाएंगी। उन्हें पता है कि आप व्यस्त हो।

नीलिमा: जब आप घर आए, तो क्या माँ परेशान लग रही थीं?

मैं: नहीं।

बच्चों की बातों मेँ माँ के दुख की कोई संवेदना नहीं दिखी, एकदम लापरवाह। क्या यह मेरी ही व्यस्तता और उपेक्षा का असर था कि मेरे बच्चे अपनी माँ के प्रति इतने बेपरवाह हो गए थे? बच्चे आपस मेँ सहमत थे कि फिर तो सब ठीक है। अगर वह परेशान होती, तो वह कुछ कहतीं। लेकिन मुझे तो पता था कि वह ऐसा नहीं करेगी, वह हमेशा की तरह ही शान्त रहेगी। वह कभी भी कुछ नहीं कहती थी। जब से हम पहली बार मिले थे तब से ही वह देने मेँ उदार रही थी, लेकिन अपने लिए कोई मांग नहीं करती थी। शुरुआत मेँ बस माँ और दिव्या के बुरे बर्ताव के बारे मेँ कहा करती थी, लेकिन मेरे पंद्रह-बीस बार अनदेखी कर देने के बाद उसने मुझसे कहना बंद कर दिया था। शायद अब उसे इससे कोई परेशानी भी नहीं थी। हमारी ज़िंदगी अच्छी रही थी। बेशक, पिछले कुछ महीने कंपनी को मिले नए कान्ट्रैक्ट की वजह से व्यस्त गुजरे, जिसकी वजह से मुझे बाहर जाना पड़ा, लेकिन ऐसा हर शादी में होता है। उसने बाहर काम नहीं किया, घर सम्हाल लिया। और मैंने अपना व्यवसाय किया, और इस तरह हमने अपनी ज़िंदगी अच्छी बिताई।

नीलिमा: अरे पापा, इतनी चिंता क्यों कर रहे हो? कुछ नहीं होता, चिंता मत करो। माँ को छोटे मोटे उपहार और गहने कुछ खरीद दो, वह ठीक हो जाएंगी। .... यह पढ़ कर मैं स्तब्ध रह गया। नीलिमा ने जिस तरह से लापरवाही और अनादर से यह कहा! हाँ, उसे गहने पसंद थे, लेकिन वह गहनों के पीछे नहीं भागती थी। उसने कभी अपने लिए कुछ नहीं खरीदा था। उसके पास जितने भी गहने थे, वे सब मेरी माँ या मुझसे मिले थे। लेकिन मैं नीलिमा को दोष नहीं दे सकता था। मैंने भी तो यही उपाय सोचा था।

मैं स्टडी छोड़कर अपने शयन कक्ष (बेडरूम) में गया। हमारा घर मुझे बहुत पसंद था। प्रियंका ने हमारे घर को इतना आरामदायक बनाया था। उस मकबरे जैसे मकान के ठीक उलट, जिसमें मैं बड़ा हुआ था, जहाँ कोई आराम से नहीं जी सकता था। जहां प्यार का कोई नामोनिशान नहीं था। यहाँ? यहाँ सब कुछ प्यार से और मीठी भावनाओं से घर जैसा एहसास देने के लिए बनाया गया था। मैंने शुरू में उसे सजाने देने से मना कर दिया था, क्योंकि मैं इंटीरियर डिजाइनर कंपनियों से कुछ ऐसा बनवाने का आदी था, जो हमारे धनवान समाज की फैशन पत्रिकाओं के पन्नों पर अच्छा लगे - लेकिन प्रियंका ने बहुत अनुरोध किया था। उसने अनुनय किया था कि हमारे घर की सजावट और देखभाल मैं उसे ही करने दूँ।

जब मैंने माँ को बताया था कि हम अपने नए घर के लिए उन के पसंदीदा इंटीरियर डिजाइनर का उपयोग नहीं करेंगे, तब उन्होंने कहा था "उसके लिए एकदम सख्त बजट बनाओ ताकि वह कुछ न कर पाए और परेशान हो जाए। फिर हार मान लेगी और तुम डिजाइनर को कान्ट्रैक्ट दे देना। जब उसे एहसास हो कि वह नहीं कर सकती, तो उससे मुझे फोन करने के लिए कहना।" अब सोच कर शर्मिंदगी हो रही थी – उन्हें फोन करे? जिससे वे उसे नीचा दिखा सकें, अपमानित कर सकें? मेरी माँ मुझसे साफ शब्दों कह रही थी कि ऐसा करो जिससे प्रियंका परेशान हो जाए, और मैं उनकी हाँ मेँ हाँ मिला रहा था। कैसा पति था मैं? जो मेरी मुस्कराहट के लिए जान न्योछावर करती थी, ऐसी पत्नी को परेशान करने के लिए मैं अपनी माँ से मिल कर उसका बजट कम करने की योजना बना रहा था? तब मुझे क्यों नहीं दिखा कि अपनी माँ को रोकना और उसके सुख की परवाह करना मेरा काम है?

मैंने माँ की बात मान कर प्रियंका को घर की सजावट के लिए एक कड़े बजट पर रखा। मुझे लगा था कि यह बहुत ही तंग है, वह ज़्यादा कुछ नहीं कर पाएगी, और हार मान लेगी। लेकिन प्रियंका तो उतने ही से खुश थी। "मुझ पर भरोसा करने के लिए धन्यवाद, अंशुमन। मैं तुम्हें निराश नहीं करूँगी।" उसने सच मेँ ही बिल्कुल निराश नहीं किया था। हमारा संसार कितना सुंदर सजाया था उसने! और मैंने एक बार भी उसकी तारीफ नहीं की थी।

ओह, मेरी माँ ने प्रियंका के घर को सजाने के “घटिया” और “सस्ते” तरीके के बारे में मुझसे शिकायत की थी, लेकिन मुझे तो वह पसंद आया था और मैंने उनसे इस बारे में बात न करने को कहा था। हो सकता है कि उन्होंने प्रियंका को इसके लिए परेशान करना जारी रखा हो, या छोड़ दिया हो, मैंने कभी जानने की कोशिश नहीं की। मुझे पता था कि माँ उसकी आलोचना के लिए कुछ न कुछ ढूँढ़ती ही रहती हैं, लेकिन मैंने कभी उसे अपनी माँ के तानों से बचाने के लिए कुछ नहीं किया था।

मैंने बेडरूम का दरवाज़ा खोला और अपनी देखा कि मेरी प्यारी प्रियंका हमेशा की तरह बिस्तर के मेरे तरफ मुँह करके लेटी हुई हमारे बड़े बिस्तर पर करवट लेकर सो रही है। जब हम जवान थे, तो वह तब तक जागती रहती थी जब तक मैं सोने न आ जाता। "मुझे ऐसे सोना अच्छा लगता है," वह अपना सिर मेरे कंधे पर रखकर और अपनी बाहें मेरे चारों ओर डालकर कहती थी। कितने समय से हम एक ही समय पर सोने नहीं गए थे? कितने समय से मैं उसके साथ नहीं सोया था? मैं बिस्तर पर बैठ गया और पर्दे के बीच से छनकर आ रही चाँदनी में उसका चेहरा देखा। नींद मेँ डूबी हुई वह कितनी सुंदर लग रही थी – और कितनी उदास भी! मैंने एक उंगली से उसके गाल को छुआ। उसकी त्वचा हमेशा की ही तरह मुलायम और नम थी। क्या आंसुओं की नमी थी? वह अभी भी उतनी ही खूबसूरत थी जितनी वह सालों पहले थी जब मैं उसके प्यार में पड़ गया था। वह अपनी नींद में हिली और कंबल नीचे खिसक गया। मैं उसकी नींद की कमीज़ के नीचे उसके जिस्म के आकार को देख सकता था। मैं एक पल में ही उत्तेजित हो गया। बीस साल, और वह मुझे ऐसे ही चाहने पर मजबूर कर सकती थी। अगर मैं उसे जगाता, तो वह मेरे पास आ जाती, मुझे उससे प्यार करने देती। उसने कभी, कभी भी, एक बार भी, मना नहीं किया।

कभी नहीं? हाँ, कभी नहीं। वह हमेशा अपनी थकावट, अपनी जरूरत, अपनी हर चीज को मेरी इच्छा, मेरी जरूरत के पीछे ही जगह देती थी। हमेशा। मैं मानसिक रूप से खुद को उन दोस्तों से नहीं जोड़ पाता था, जिनकी पत्नियाँ सिरदर्द का बहाना करती थीं या अपनी शादी में सेक्स को अपनी मांगें पूरी करने के लिए मोल-तोल का ज़रिया बना लेती थीं। लेकिन प्रियंका के साथ ऐसा नहीं था। वह प्यारी और कामुक थी। जब हम प्यार करते, तो वह फुसफुसाकर कहती, "मैं तुमसे प्यार करती हूं, मेरे प्यारे अंशुमन"। जब वह मुझसे कहती कि वह मेरी है, या मुझसे कहती कि मैं उसका हूं, कि वह मुझसे प्यार करती है, तो यह बात मुझे बहुत उत्तेजित कर देती थी। काश, मैं अभी उसके साथ सो पाता, लेकिन मुझे शहर के योजनाकारों के साथ कल होने वाली एक बैठक की तैयारी करनी थी। जैसा कल का कार्यक्रम था, मैं भाग्यशाली थी कि मुझे कुछ घंटे सोने का मौका मिल गया।

मैंने अपने होंठ उसके माथे पर रगड़े, और वह नींद मेँ बोली, "म्म्म, मैं तुमसे प्यार करती हूँ, मेरे प्रिय अंशुमन।" लानत है मुझ पर! वह यह बात अपनी नींद में भी कह रही थी, जब मैं अपनी बीसवीं शादी की सालगिरह तक भूल गया था। वह अपना दिल खोलकर मुझे अपना प्यार बताने में खुश थी, और मुझे वह सब कुछ देती थी जिसकी मुझे ज़रूरत थी या जो मैं चाहता था। आखिरी बार कब मैंने उसे कहा था कि मैं उससे प्यार करता हूँ? हमेशा। मैं हमेशा कहता था, है न? फ़ोन कॉल के बाद या... बेशक, मैं कहता रहता हूँ। लेकिन पिछली बार हमने फोन पर कब बात की थी? हम एक गले मिलने वाला परिवार थे जो एक दूसरे से ‘आई लव यू’ कहते थे। बस अभी याद नहीं आ रहा था।

मैं एक रूढ़िवादी परिवार में पला-बढ़ा हूँ, जहां कोई गर्मजोशी नहीं दिखाता, सब अनुशासन से रहते हैं। लेकिन प्रियंका ने हम सभी को गले लगना, चूमना और एक-दूसरे से प्यार करना, और एक दूसरे से यह कहना सिखाया था। शुरू में, मैंने विरोध किया, "अगर हम हर समय यह कहते रहेंगे, तो इसका कोई महत्व नहीं रह जाएगा।"

"नहीं, मेरे प्यारे अंशुमन, प्यार और भी गहरा होता जाएगा। मैं वादा करती हूँ।" वह सही थी।

उफ्फ़! मैं एक और सालगिरह भूल गया था। मुझे इसकी भरपाई करनी थी। नीलिमा प्रियंका और गहनों के बारे में चाहे जो भी सोचती हो, मुझे बेहतर पता था। मैं अपने बिजनेस के कुछ सौदे निपटाने के तुरंत बाद उसके साथ एक यात्रा की योजना बनाऊँगा। छुट्टियों की योजना के बारे में सोचते हुए मैं मुस्कराया। कुछ ही समय में बच्चे दीपावली के लिए घर आएंगे, और प्रियंका वही करेगी जो वह हमेशा करती थी, हमारे घर को त्यौहार की खुशबू और स्वाद से भरा एक आरामदायक स्वर्ग बना देगी। उसे साल का यह समय बहुत पसंद था और उसने इसे हम सभी के लिए हमेशा खास बनाए रखा।

मैंने अपने अध्ययन कक्ष (स्टडी) की ओर जाते हुए सोचा कि दीपावली के बाद हम स्विट्जरलैंड जा सकते हैं। हम उस होटल में ठहर सकते हैं जिसे मैंने डिज़ाइन किया था। मुझे क्लाइंट से मिलने और प्रियंका के साथ छुट्टियाँ बिताने, दोनों का मौका मिलेगा। इसी बीच वहाँ मैं कुछ मीटिंग्स में शामिल हो जाऊँ और वह स्पा जाए तो उसे कोई आपत्ति नहीं होगी। हाँ, यही करूँगा, मैंने निर्णय लेकर काव्या को एक ईमेल भेजा, जिसमें उसने मुझे मेरे शेड्यूल मेँ दीपावली के बाद कुछ ऐसी तारीखें देने को कहा, जो छुट्टियों के लिए उपयुक्त हों।

शनिवार, 29 नवंबर 2025

ज़िंदगी अधूरी तेरे बिन - भाग एक (01)

ज़िंदगी अधूरी तेरे बिन
भाग एक






अस्वीकरण

यह एक पूरी तरह काल्पनिक कहानी है। इसका किसी भी जीवित या मृत व्यक्ति, या परिवार से कोई संबंध नहीं है।

परिचय

उसने विरासत मेँ एक साम्राज्य पाया, और उसे खूब बढ़ाया। लेकिन उसमें उलझा रह कर, वह अपनी रानी का ख्याल रखना भूल गया। उपेक्षाओं की हद पार होने पर आखिर एक दिन वह उसे छोड़ कर चली गई। क्या वह उसके पीछे जाकर उसे वापस पा सकेगा?
अंशुमन राव-सिन्हा के पास सब-कुछ था — एक फलता-फूलता व्यवसाय, आलीशान घर और प्यार करने वाला परिवार। फिर भी, जब उस की पत्नी प्रियंका शादी के बीस साल बाद, बच्चों के बाहर पढ़ने चले जाने के दो साल बाद उसे छोड़ देती है, तो उसे सच्चाई का सामना करना पड़ता है; कि उसने अपनी पत्नी से बहुत प्यार करने के बावजूद, अपनी पत्नी के प्यार की लगातार उपेक्षा की थी, और उसके प्रति हमेशा लापरवाही बरती थी। और इस पूरे समय वह यही समझता रहा था कि हम एक सुखी परिवार हैं। उसे एहसास तक नहीं हुआ था कि प्रियंका उसके वैभवशाली घर मेँ दुखी भी हो सकती थी।
पहली बार अपनी गलतियों को समझते और स्वीकार करते हुए, अंशुमन अपने जीवन के प्यार को फिर से जीतने के लिए प्रियंका के पीछे जाता है।
चालीस की उम्र की दहलीज पर खड़ी प्रियंका राव-सिन्हा, जीवन के एक ऐसे मोड़ पर खड़ी हैं, जो उस की जिंदगी बदल देगा। अपनी शादी में खुद को अनदेखा और कमतर महसूस करते रहने से थक कर, वह अपनी समृद्ध जिंदगी छोड़कर लक्षद्वीप में अपनी दोस्त श्रेया के रिसॉर्ट का प्रबंधन करने चली जाती है। श्रेया, जो जीवन के आखिरी पड़ाव पर है।
जब अंशुमन उसे मनाने और सुलह करने आता है, तो प्रियंका उलझन मेँ पड़ जाती है। उसने तो सोचा था कि वह मुझसे छुटकारा चाहता है?

मुख्य विषय: पति-पत्नी का रिश्ता, प्रौढ़ अवस्था का प्यार, पछतावा, दूसरा मौका

भाग 1
प्रियंका

मैंने बहुत पहले ही सीख लिया था कि मुझे अंशुमन का इंतज़ार नहीं करना चाहिए, लेकिन मैंने अपनी आदत से मजबूर होकर शुक्रवार की रात को एक बार फिर वही इंतजार किया था। यह स्थिति मुझे हज़ारों बार बेवकूफ़ साबित करती आई थी, आज भी यही होना था।

शादी की बीसवीं सालगिरह!

मैं पूरे दिन किसी तरह के किसी भी संकेत, किसी भी अभिव्यक्ति की उम्मीद करती रही - एक गुलदस्ते, एक गुलाब, एक डिनर निमंत्रण, या एक टेक्स्ट संदेश भर की भी उम्मीद - जिसमें लिखा हो “हैप्पी एनिवर्सरी, बेबी”। इसके बाद कुछ इस तरह का कि “मैं इस बीसवीं सालगिरह को तुम्हारे लिए खास बनाऊँगा।” लेकिन, कुछ भी नहीं था। कुछ भी नहीं।

मैं सालगिरह या जन्मदिन को लेकर ज्यादा अपेक्षाएं नहीं रखती, क्योंकि मुझे पता है कि इससे निराशा ही हाथ लगेगी। अंशुमन मेरे पिछले कुछ जन्मदिन भूल गया था, लेकिन पहले के वर्षों मेँ कई बार उसने मेरे लिए फूल भी खरीदे थे। पिछले कई सालों से तो जैसे भूलना ही नियम हो गया था। लेकिन यह तो हमारी बीसवीं सालगिरह थी, कुछ अलग, कुछ खास। इसलिए मैं इस बार सोच रही थी .....

जब बच्चे घर पर थे तो इतना बुरा नहीं लगा करता था, लेकिन सत्रह साल के होने पर हमारे जुड़वाँ बच्चे घर छोड़कर आगे पढ़ने चले गए थे। शाश्वत अपने पिता की तरह आर्किटेक्चर की डिग्री हासिल करने की तैयारी के लिए पढ़ाई करने, और नीलिमा प्री-मेडिकल की तैयारी की पढ़ाई करने। अब उन्हें गए दो साल हो गए थे, दोनों उन्नीस के होने वाले हैं।

और मैं? मैं यहां हूँ, एक बड़े और आलीशान घर में अकेली घूमती हुई। घर, जो कर्नाटक के बैंगलोर शहर के सबसे पॉश इलाकों में है, हर उस विलासिता से घिरा हुआ है, जिसकी मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी। मैं एक झोंपड़ पट्टी में गरीबी में पली बढ़ी थी। और अंशुमन? अंशुमन हमेशा से ही अमीर रहा है। वह अपने अमीर व्यवसायी परिवार के पुश्तैनी पैसों के साथ बड़ा हुआ है, और एक दशक पहले, उसे अपने पिता से ‘राव-सिन्हा-आर्किटेक्ट्स-एण्ड-बिल्डर्स’ कंपनी विरासत में मिली थी। उसने अपनी कड़ी मेहनत और दृढ़ इच्छाशक्ति के दम पर कंपनी को और भी बड़ा और सफल बना दिया था। इस तरह के परिवार से आने के कारण उसे कभी नहीं पता था कि एक असुरक्षित जीवन का क्या मतलब है।

मैंने शैंपेन का एक और गिलास अपने लिए डाला। यह इस महंगी ड्रिंक का आखिरी गिलास था जिसे मैंने हमारी सालगिरह के लिए फ्रिज मेँ रख कर ठंडा किया था। तो, क्या हुआ अगर वह भूल भी गया तो? मैंने खुद से कहा। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। मुझे तो याद था, और शायद अगर वह देर से भी आता, तो हम टोस्ट करते, हम प्यार करते – एक दिन के लिए उस समय खंड मेँ वापस लौट जाते जब मैं अपनी शादी में इतनी एकाकी नहीं थी।

घड़ी ने आधी रात बजने की सूचना की घोषणा की, तारीख बदल गई। और मुझे पता था कि अब इंतजार का कोई अर्थ नहीं, अब इस सिंडरेला के राजकुमारी बनने का समय पूरा हो गया है। कुछ और देर बाद दरवाज़ा खुलने की आहट हुई और मैंने अंशुमन को भीतर घुसते हुए फोन पर बातें करते सुना, किसी बात पर हंसते हुए। "बेशक, मैं कल ऑफिस मेँ तुमसे मिलूंगा। हाँ, मुझे पता है, हमारी मीटिंग सात बजे है।"

वह उसकी कार्यकारी सहायक काव्या होगी। वह दो या तीन साल पहले हमारे जीवन में आई थी, सुंदर और स्मार्ट थी, और उसके पास आईआईएम से बिजनेस की डिग्री थी। काव्या ग्रेवाल भोपाल मेँ काम करने के बाद बैंगलोर आई थी, जिसकी उम्र बीस के दशक मेँ कहीं थी, तीस से कुछ कम। अंशुमन चालीस का था, और मैं अड़तीस की उम्र पूरी कर के चालीस का दरवाजा खटखटा रही थी। लोग कई बार कहते थे कि उनका अफेयर है, लेकिन मुझे यह नहीं लगता था। अंशुमन के साथ नहीं। वह ऐसा व्यक्ति नहीं था। लेकिन शायद हर पत्नी, जिसके पति ने उसे धोखा दिया हो, वह यही सोचती होगी: नहीं, मेरे पति ऐसे नहीं!

यह ख्याल इसलिए, क्योंकि एक तो हर पार्टी मेँ लोग यह इशारा करते थे। फिर, पिछले कई महीनों से हम बहुत सेक्स नहीं कर रहे थे। काव्या, गोरी, सुंदर और जवान थी, उसके पास मेरी तरह छिपाने के लिए सफेद होते हुए बाल नहीं थे, ना गालों पर कंसीलर से छिपाने के लिए काले धब्बे ही। उसके पास एक बढ़िया करियर था, उसने घर बैठकर बच्चों की परवरिश और घर संभालने में पूरी ज़िंदगी नहीं बिताई थी, वह हर तरह से मुझसे बेहतर थी। लेकिन मुझे पूरा विश्वास था कि मेरा अंशुमन ऐसा नहीं हैं। चाहे लोग कुछ भी कहते हों, चाहे अंशुमन कितना ही देर से घर आता हो, लेकिन वह ऐसा व्यक्ति हरगिज नहीं था।

लेकिन जब हमारे दोस्त गुप्ता दम्पत्ति का तलाक हुआ था (क्योंकि विवेक किसी और के साथ शारीरिक संबंध बना रहा था) तब अंशुमन ने कहा था, "विवेक ईशानी से बहुत आगे निकल चुका है। जब विवेक प्रगति की सीढ़ियाँ चढ़ रहा था, तब वह घर पर थी, एक व्यक्ति के रूप में विकसित नहीं हो रही थी, इसीलिए उसने किसी युवा, छरहरी और बुद्धिमान लड़की को ढूंढा और संबंध बनाए।" यह कहते हुए अंशुमन को जरा भी यह एहसास नहीं हुआ कि वह ईशानी के साथ-साथ मेरे बारे में भी तो बात कर रहा है। मेरी दोस्त की तरह मेरा भी तो वजन थोड़ा सा बढ़ गया था – जब एक स्त्री माँ बनती है, अपने बच्चों की अच्छी परवरिश करने मेँ अपना समय लगाती है, तो वह कई बार खुद पर उतना ध्यान नहीं दे पाती। जब हम बच्चों को जन्म देते हैं, तो शरीर मेँ हार्मोनल बदलाव आते हैं, और उम्र बढ़ने के साथ मेटाबोलिज्म कम हो जाता है, अपना बस नहीं चलता ।

मेरे विपरीत, ईशानी पहले वकालत करती थी, उसने शादी के बाद अपनी वकालत की प्रैक्टिस को घर चलाने के लिए छोड़ दिया था। जिससे विवेक अपनी “गुप्ता एंड गुप्ता लॉ फर्म” पर ध्यान देने को पूरा समय निकाल सके; कि विवेक को अपने बच्चों की परवरिश की चिंता नहीं करनी पड़े, वह अपने व्यवसाय मेँ आगे बढ़ सके। लेकिन उनकी शादी खत्म होने के बाद, वह काम पर वापस चली गई थी। एक महिला के लिए, जो पंद्रह साल से अधिक समय घर सम्हालती रही थी, यह एक कठिन काम था, फिर भी ईशानी अपनी मेहनत से सफल हुई थी। अब ईशानी के पास एक ऐसा करियर था, जिसे उसने तलाक के बाद के पाँच सालों में बनाया था, जिसमें वह ‘ईशानी गुप्ता’ नहीं, बल्कि अपने शादी के पहले के नाम ‘ईशानी अस्थाना” से जानी जाती थी । तलाक में उसने अपनी बेटी की कस्टडी को विवेक को खो दिया (बेटी ने विवेक की बेवफाई के लिए ईशानी को ही दोषी ठहराया, उसी तरह जैसे अंशुमन ने कहा था) और बेटे को अपनी होने वाली बहू से खो दिया (वह विवेक की कंपनी मेँ काम करती थी और ईशानी को पसंद नहीं करती थी)। विवेक और ईशानी के बीच विवाह-पूर्व एक सख्त प्री-नेपुटल समझौता हुआ था। सब सोचते थे कि उस समझौते के कारण ईशानी को तलाक मेँ कुछ नहीं मिला, लेकिन मैं जानती थी कि ईशानी विवेक से कुछ भी लेने को तैयार नहीं थी। "यह पैसा गंदा पैसा है, प्रियंका” उसने मुझसे कहा था "यह मेरे टूटे हुए दिल के खून से सना है। मुझे इसकी नहीं, अपने परिवार की जरूरत थी, पैसा तो मैं खुद भी कमा सकती हूँ।"

अंशुमन और मेरे बीच भी विवाह-पूर्व एक सख्त प्री-नेपुटल समझौता हुआ था। वह एक धनवान परिवार की पैतृक संपत्ति वाला व्यक्ति था, और मैं गरीबी से आई थी। श्रीमती राव-सिन्हा ने हमेशा मुझसे सख्त नफरत की थी, कुछ साल पहले अपनी अंतिम सांस लेने तक भी। शादी के इतने सालों बाद भी, वह मुझे धन के लालच वाली, सोने की खोज करने वाली, अपने बेटे को झांसा देकर फँसाने वाली और लालची वगैरह कहती रहती थीं, और अंशुमन से बात करते हुए कई बार यह कहती थीं, "बेटा, तुमने उसके साथ शादी कर के गलती की।"

"आप उन्हें कुछ क्यों नहीं कहते?" जब मैं छोटी थी, और हमारी नई-नई शादी हुई थी, तब मैंने कई बार पूछा था, और हर बार अंशुमन ने इस बात को टाल दिया था। "बस इस बात पर ध्यान मत दो। मैंने तुमसे शादी की है, है न? तो समस्या क्या है?"

अपनी सभी कमियों और उनकी नापसंद के बावजूद, अंशुमन की माँ ने मुझे निखारने और आकर्षक बनाने के लिए हर संभव प्रयास किया। मुझे सिखाया कि ऐसे उच्च परिवार की बहू कैसे बनना है। घर कैसे संभालना है, कैसे कपड़े पहनने हैं, कैसे सही फूल और उपहार खरीदने हैं, कैसे पार्टी आयोजित करनी है, कैसे अमीर समाज मेँ उठने बैठने योग्य एक “अच्छी पत्नी” बनना है। शादी के तुरंत बाद ही मैं जुड़वा बच्चों के साथ गर्भवती हो गई थी - और मेरी शादी मेरी हैसियत से कहीं अधिक ऊंचे स्तर पर हुई थी, तो यह सब आसान नहीं था। बच्चों के जन्म के बाद मैंने अपना वजन कम करने के लिए कसरत आदि भी की, और खुद को बच्चों, चैरिटी के काम, पार्टियाँ देने और घर की देखभाल में व्यस्त बनाए रखा। अंशुमन के और उसके उस समाज के लायक पत्नी बनने के लिए मैंने बहुत मेहनत की। मैं अपने प्यारे अंशुमन को निराश नहीं करना चाहती थी।

इस सबके बाद, आज मेरे पति हमारी शादी की बीसवीं सालगिरह को भूल गए थे और आधी रात के बाद घर मेँ घुसते हुए हमारे लिविंग रूम में अपनी युवा सहायक के साथ हंस-हंस कर बातें कर रहे थे, जबकि मैंने अभी-अभी शैंपेन की हजारों रुपए की बोतल अकेले ही खाली की थीं। खैर, कम से कम मुझे शैंपेन तो मिली।

"अरे, बेब, तुम अभी भी जाग रही हो?" कॉल खत्म करने के बाद वह मेरे पास आया। उसने फोन देखते हुए मेरे माथे को चूमा। फिर वह बर्फ की बाल्टी और टेबल सेटिंग, फूलों और टेबल पर रखे हुए उपहार को देख कर एक पल के लिए रुका। वह एक पल के लिए उलझन में लग रहा था, और फिर उसे समझ में आ गया। मैंने उसके चेहरे पर इसे होते हुए देखा। उसे यकीन नहीं हो रहा था कि वह फिर से भूल गया है। भूल जाने के लिए खुद पर गुस्सा, और उसे याद न दिलाने के लिए मुझ पर गुस्सा भी। और फिर इस भूल को सही करने की ज़रूरत। यह सब उसके चेहरे पर बदलता हुआ दिख रहा था। मेरा प्यारा अंशुमन, जो हमेशा सही काम करना चाहता है।

"बेब, मैं बिल्कुल भूल गया था - मुझे बहुत खेद है।"

मैं उठ कर खड़ी हो गई, एक अच्छी पत्नी की तरह। घंटों के इंतजार के बाद मेरी मांसपेशियां अकड़ गई थीं, और हिलने पर विरोध में चीख रही थीं। "कोई बात नहीं, अंशुमन। क्या तुमने खाना खाया है?" देखिए, श्रीमती राव-सिन्हा, मैं कितनी अच्छी पत्नी हूँ। मेरे पति हमारी सालगिरह भूल गए, और मैं पूछ रही हूँ कि क्या उन्होंने खाना खाया है। मैंने मन मेँ अपनी सासु-माँ से कहा। बात यह थी कि मैं क्रोध से आगे निकल चुकी थी, अपने दर्द से, अपने दुख से आगे निकल चुकी थी। ऐसा नहीं था कि मैं अंशुमन के अचानक अपने आप ही अखिल भारतीय सर्वश्रेष्ठ पति बन जाने का इंतज़ार कर रही थी। अरे नहीं! मैंने उसे कई बार यह बताने की कोशिश की थी कि उसे मेरे लिए जगह बनाने की ज़रूरत है, मुझे अपने पति की ज़रूरत है। लेकिन मुझे नहीं लगता कि मेरी बात कभी भी उस तक पहुँची थी।

एक पिता के रूप में अंशुमन बेदाग़ था। उसने कभी भी बच्चों के स्कूल का कोई कार्यक्रम मिस नहीं किया। जब भी दोनों जुड़वाँ बच्चों को उनकी ज़रूरत होती, वे हमेशा मौजूद रहता। वे तीनों बहुत करीब थे, और जैसे-जैसे बच्चे बड़े होते गए, मैं किसी तरह अपने ही परिवार में बाहरी व्यक्ति बनती चली गई, जैसे वे तीन एक परिवार हों और मैं सिर्फ घर सम्हालने वाली भर हूँ। मैं जानती थी कि वे तीनों ही मुझे नीची नजर से देखते थे क्योंकि मैं अंशुमन की तरह बुद्धिमान या उच्च-शिक्षित नहीं थी।

मेरे बुक क्लब की नवीनतम पुस्तक नोरा रॉबर्ट्स की एक रोमांटिक थ्रिलर थी, जबकि अंशुमन और बच्चे “डेरिडा” नामक किसी फ्रांसीसी व्यक्ति के बारे में चर्चा कर रहे होते थे। वे सभी अच्छे विश्वविद्यालयों से डिग्री प्राप्त कर रहे थे या कर चुके थे - जबकि मैं सरकारी कॉलेज मेँ पढ़ी थी। शादी के समय मैंने सोचा था एक साल के बाद वापस पढ़ने जाऊँगी। लेकिन जुड़वां बच्चों के साथ गर्भवती होने पर सरकारी कॉलेज से भी बाहर हो गई थी। मैंने जो पाठ्य-क्रम शुरू किया था उसे पूरा करने के लिए मैं कभी वापस नहीं गई। जैसा कि अंशुमन की माँ ने मुझसे कहा, "गर्भवती होने से तो तुम सोने के कुण्ड में गिर गई हो, लड़की; अब क्या और क्यों पढ़ोगी? तुम्हें अपने जीवन में एक दिन भी काम करने की ज़रूरत नहीं है। यह गर्भ नहीं होता तो दो साल के अंदर ही अंदर अंशुमन के सर से प्यार का भूत उतर जाता और वह तुम्हें तलाक दे देता। लेकिन ये दोनों बच्चे तो हमारे परिवार के हैं और तुम उनकी माँ होगी, इसलिए अब वह बेचारा तुमसे छुटकारा भी नहीं पा सकेगा।"

उन्होंने कहा था मुझे एक दिन भी काम करने की जरूरत नहीं है, लेकिन मैंने अपने जीवन के हर दिन कड़ी मेहनत से काम किया था। कड़ी मेहनत! नौकरी भले ही न की हो, पढ़ाई भले न पूरी हुई हो, लेकिन मेहनत? अपनी क्रूर सास, देवरानी और ननद के हर दिन के ताने और अपने पति की अरुचि और लापरवाही को हर दिन मुस्करा कर सहते हुए भी मैंने अपने बच्चों को खुशनुमा संसार और परवरिश दी थी।

"हाँ, मैं खाकर आया हूँ। प्रियंका, बेब, मैं सच में शर्मिंदा —" मैंने उसे देखकर मुस्कराई। अब मैं उसे वह सब दिखाने में माहिर हो गई थी जो वह देखना चाहता था। "कोई बात नहीं।"

"हमारे सामने एक व्यापारिक संकट था और—" मैं पंजों पर ऊंची उठी और उसका गाल चूमा। पहले मुझे अच्छा लगता था कि वह मुझसे एक फुट लंबा था, बहुत रोमांटिक लगता था। लेकिन अब? अब यह उसे ज़्यादा अप्राप्य बना देता है। ऊंची एड़ी के जूते पहनती काव्या, पाँच फुट नौ इंच की होती थी, मेरे पाँच फुट पाँच इंच के मुकाबले यह ऊंचाई तो एक मॉडल की तरह लगती थी। "मैं सोने जा रही हूँ। शुभ रात्रि, प्रिय अंशुमन।"

उसने फिर से मेरे माथे को चूमा। मेरे मुंह को नहीं, जैसा कि वह पहले करता था। क्या वह मुझे धोखा दे रहा था? आखिरी बार हमने कब सेक्स किया था? तीन… नहीं चार महीने पहले? या पाँच महीने पहले? जब आपको याद भी नहीं रहता, तो आपको पता चल जाता था कि आपकी शादी मुश्किल में है। जैसे एक सीरियल में नायिका की सास ने कहा था जब शादी चट्टानों पर होती है, तो जोड़े के बिस्तर में बर्फ जमी होती है। "काश मैं तुम्हारे साथ सोने आ पाता, लेकिन मुझे सुबह होने वाली बैठक के लिए कुछ काम निपटाने हैं," उसने माफी मांगी। "कोई बात नहीं। तुम काम निपटा लो और थोड़ा आराम भी कर लो।"

आजकल अंशुमन अपने कार्यालय में देर तक काम करता था, और फिर अतिथि कक्ष में सो जाता था। उसका बहाना होता था "मैं तुम्हें जगाना नहीं चाहता था, बेबी।" सुबह मेरे जागने से पहले ही वह चला जाता था। मैं बिस्तर पर लेट गई और आखिर वह निर्णय ले ही लिया, जो मुझे एक न एक दिन लेना ही था, काश मैं इसे दो साल पहले ले लेती, बच्चों के पढ़ने चले जाने के ठीक बाद।

मैंने श्रेया को मैसेज किया, जो मेरे बचपन की दोस्त है और मेरे झोंपड़ पट्टी के दिनों से ही काम करती आ रही है। अब अपना रिसॉर्ट चलाती है। मैं अक्सर उससे मिलने जाती। पिछले कुछ सालों में तो और भी ज़्यादा, क्योंकि उसे ब्रेस्ट कैंसर का पता चला था। इलाज चल रहा था। श्रेया के बच्चे नहीं थे, और जिस व्यक्ति से उसने दूसरी शादी की थी, उसकी कार दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी। उसी ने उसके लिए वह घर छोड़ा था, जिसमें वह अब रहती है। मैं उसके कीमोथेरेपी के दौरान उसके साथ थी, और जब वह ठीक हो गई तो हम दोनों ने जश्न मनाया। अब, दो साल बाद, कैंसर फिर से पलट कर वापस लौट आया था, और डॉक्टरों ने उसे कुछ महीने, ज्यादा हुआ तो एक साल, का समय दिया था। कुछ महीने पहले जब उसने मुझे बताया, तो मेरे भविष्य की योजना बनने लगी।

मैं: श्रेया, मैं कल तक वहाँ पहुँच जाऊँगी।
श्रेया: तो अब आखिर तुम आखिर यह कर ही रही हो?
मैं: हाँ ।
श्रेया: क्या तुमने उसे बताया है?
मैं: नहीं, मैं उसके लिए एक नोट छोड़ दूँगी।
श्रेया: क्या इस तरह बताना ठीक है? सामने क्यों नहीं बता देती?
मैं: मुझे नहीं लगता कि उसे कोई परवाह होगी।
श्रेया: तुम जानती ही हो, यहाँ तुम्हारा हमेशा स्वागत है, जब चाहे आ जाओ।