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शुक्रवार, 25 नवंबर 2011

श्रीमद्भगवद्गीता १.२

संजय उवाच ॥

दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा ॥
आचार्यमुपसंगम्य राजा वचनमब्रवीत॥२॥

संजय उवाच (संजय ने कहा )

संजय ने धृतराष्ट्र के प्रश्न के उत्तर देने शुरू किये

" संजय ने कहा : पांडव सेना के व्यूह को देख कर राजा दुर्योधन ने गुरु द्रोण के निकट जाकर ये वचन कहे "
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संजय कौन हैं? संजय धृतराष्ट्र के सारथी , सूत , या रथ चालक हैं | युद्ध के आरम्भ से पहले , श्री वेदव्यास ने धृतराष्ट्र को दिव्य दृष्टि देने का प्रस्ताव किया था, लेकिन धृतराष्ट्र ने यह कह कर मना कर दिया कि यदि मैं देखूं भी , तो मैं तो अँधा हूँ - किसी को पहचानता ही नहीं , तो देखूं भी तो जान ही नहीं जाऊंगा - कि मेरे पुत्र कौन हैं और शत्रु कौन (- ध्यान दीजिये - शत्रु ) इसीलिए - दिव्य दृष्टि संजय को दी जाए - कि वह मुझे बताता रहे कि युद्ध में हो क्या रहा है | धृतराष्ट्र को संजय पर बहुत भरोसा था | धृतराष्ट्र बेचारे - अपनी महत्वाकांक्षा के जाल में अब तक बहुत अकेले और उदास हो गए थे | धृतराष्ट्र अच्छी तरह जानते थे कि - भले ही अपनी अपनी निजी मजबूरियों की वजह से सब मेरे साथ खड़े हैं - लेकिन दिल से सब (- ध्यान दें - उनके सब प्रिय जन - भीष्म, विदुर, गांधारी - आदि - ) मुझे गलत मानते हैं | न सिर्फ सब यह मन में मानते थे - बल्कि वे धृतराष्ट्र से यह कहते भी रहते थे कि तुम गलत कर रहे हो | तो धृतराष्ट्र जैसा अकेलापन शायद ही किसी का हो | इस पर बड़ी मुसीबत यह कि बेचारे अपनी इच्छाओं में अंधे धृतराष्ट्र को सच में दिल में यही लगता था कि मैं कुछ गलत नहीं कर रहा |

धृतराष्ट्र का नजरिया अपने आप में गलत भी नहीं - कि राज्य यदि बड़े पुत्र का होता है - तो पहला हक़ धृतराष्ट्र का ही था - और फिर दुर्योधन का | जब हम दुर्योधन और युधिष्ठिर में तुलना करते हैं, तो युधिष्ठिर का पलड़ा भारी लगता है शायद - पर सवाल धृतराष्ट्र का यह है कि यह तुलना क्यों ? क्या कभी किसीने अयोध्या के राज्य के लिए - श्री राम के ज्येष्ठ पुत्र और श्री भरत के ज्येष्ठ पुत्र में तुलना करने की सोची???? तो सब ही धृतराष्ट्र को हमेशा यह जताते रहे कि तुम अधर्म पथ पर हो - कि अपने बेटे को गलत रूप से राजा बनाना चाहते हो | पर धृतराष्ट्र यही मानते रहे कि वे कुछ गलत नहीं कर रहे - और अपनी जगह वे ठीक हैं | लेकिन धृतराष्ट्र यह भी जानते हैं कि कोई और दिव्य दृष्टि ले, तो युद्ध का हाल सुनते हुए उन्हें धिक्कारता रहेगा - और वे पहले ही बहुत दुखी थे | किन्तु संजय उनका निष्ठावान सेवक था - वह उतना ही कहेगा जितना उसे कहने दिया जाए - उसे कहीं भी चुप रहने की आज्ञा दी जा सकती थी |

इस इनकार से एक और बात भी दिखती है - कि धृतराष्ट्र को एक आदत हो गयी थी - अपने अंधेपन की ढाल के पीछे छिपने की - तो वे युद्ध के हर सीधे दर्द से बचने के लिए भी इस ढाल का इस्तेमाल करना चाहते थे | आसान नहीं है - युद्ध में अपने लोगों को मरते देखना घर में बैठ कर | और यदि दृष्टि मिल ही जाए - तो फिर घर बैठने का कोई औचित्य ही नहीं | क्षत्रिय धर्मानुसार - धृतराष्ट्र को भी युद्ध करना चाहिए - वे इसलिए नहीं लड़ रहे हैं - कि वे अंधे हैं | और यदि दिव्य दृष्टि मिल ही जाए - तो वे अंधे रहेंगे ही नहीं - तो स्वयं युद्ध में न उतरने का कारण ही नहीं बचता है कोई !

मैं बिलकुल नहीं कह रही कि राज्य किसे जाना चाहिए था - यह विषय यहाँ है ही नहीं | राज्य का विभाजन हो ही चुका था - अब पांडव अपना भाग वापस मांग रहे थे - इन्द्रप्रस्थ - न कि हस्तिनापुर | यह लड़ाई हस्तिनापुर के लिए है ही नहीं | इतनी सारी बातें हैं - जिन पर हम कह सकते हैं - कि यह न होता तो युद्ध न होता | यदि शांतनु ने गंगा को अँधा वचन न दिया होता - तो देवव्रत के बड़े भाई जीवित होते , यदि गंगा छोड़ न जाती - तो शायद शांतनु के जीवन में सत्यवती न आती , यदि देवव्रत ने अंधे पितृ प्रेम में एक लापरवाह प्रतिज्ञा न ली होती, यदि धृतराष्ट्र अंधे न होते, यदि कुंती कर्ण को पहचान कर अपना लेती , यदि द्रौपदी दुर्योधन पर अंधे का पुत्र अँधा कह कर न हँसती .... यदि यदि यदि ..... खैर ....

तो -

" संजय ने कहा : पांडव सेना के व्यूह को देख कर राजा दुर्योधन ने गुरु द्रोण के निकट जाकर ये वचन कहे " ............- ध्यान दें - "व्यूह " देख कर | यह वाक्य कई बातें बताता है |

पहली यह कि दुर्योधन सैनिक शक्ति पर ज्यादा ध्यान देता है | जब दुर्योधन और अर्जुन कृष्ण से सहायता लेने गए थे युद्ध के लिए - तो अर्जुन ने कृष्ण को और दुर्योधन ने सेना को चुना था (भले ही ऊपर से दिखाया कि मजबूरी है जी - किन्तु दिल से दुर्योधन सेना ही चाहता था )
दूसरी बात यह कि दुर्योधन अपने गुरु को गुरु नहीं - सिर्फ एक सेनापति की भूमिका में देख रहा है | अगले ही श्लोक में दुर्योधन द्रोण को उलाहना देता है ( कि यह जान कर भी कि धृष्टद्युम्न उनको मारने ही जन्मा है - उन्होंने उसे शिक्षा और आशीर्वाद दोनों दिए - यह उनकी सरासर मूर्खता रही)

तीसरी बात यह है कि दुर्योधन एक बहुत सुलझा हुआ योद्धा है | वह इसलिए - कि वह चाहता तो यह था कि उसका परम मित्र कर्ण प्रधान सेनापति हो , किन्तु वह यह भी जानता है कि पांडवों की आधी हार तो भीष्म और द्रोण को सामने देख कर ही हो जायेगी | तो - जबकि वह इन बुजुर्गों को पसंद ज़रा भी नहीं करता था - फिर भी एक समझदार योद्धा की तरह उसने इन लोगों को अपनी सेना के प्रमुख पदों पर रखा | इस कीमत पर भी कि - भीष्म ने तो कर्ण को युद्ध में लिया ही नही था अपने झंडे के तले ! किन्यु दुर्योधन जानता था कि युद्ध में उनका महत्व क्या है - तो वह मान ही गया था|

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जारी

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disclaimer:

कई दिनों से इच्छा थी, कि भगवद गीता की अपनी समझ पर लिखूं - पर डर सा लगता है - शुरू करते हुए भी - कि कहाँ मैं और कहाँ गीता पर कुछ लिखने की काबिलियत ?| लेकिन दोस्तों - आज से इस लेबल पर शुरुआत कर रही हूँ - यदि आपके विश्लेषण के हिसाब से यह मेल ना खाता हो - तो you are welcome to comment - फिर डिस्कशन करेंगे .... यह जो भी लिख रही हूँ इस श्रंखला में, यह मेरा interpretation है, मैं इसके सही ही होने का कोई दावा नहीं कर रही

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मेरे निजी जीवन में गीता जी में समझाए गए गुण नहीं उतरे हैं । मैं गीता जी की एक अध्येता भर हूँ, और साधारण परिस्थितियों वाली उतनी ही साधारण मनुष्य हूँ जितने यहाँ के अधिकतर पाठक गण हैं (सब नहीं - कुछ बहुत ज्ञानी या आदर्श हो सकते हैं) । गीता जी में कही गयी बातों को पढने / समझने / और आपस में बांटने का प्रयास भर कर रही हूँ , किन्तु मैं स्वयं उन ऊंचे आदर्शों पर अपने निजी जीवन में खरी उतरने का कोई दावा नहीं कर रही । न ही मैं अपनी कही बातों के "सही" होने का कोई दावा कर रही हूँ। मैं पाखंडी नहीं हूँ, और भली तरह जानती हूँ कि मुझमे अपनी बहुत सी कमियां और कमजोरियां हैं । मैं कई ऐसे इश्वर में आस्था न रखने वाले व्यक्तियों को जानती हूँ , जो वेदों की ऋचाओं को भली प्रकार प्रस्तुत करते हैं । कृपया सिर्फ इस मिल बाँट कर इस अमृतमयी गीता के पठन करने के प्रयास के कारण मुझे विदुषी न समझें (न पाखंडी ही) | कृष्ण गीता में एक दूसरी जगह कहते हैं की चार प्रकार के लोग इस खोज में उतरते हैं, और उनमे से सर्वोच्च स्तर है "ज्ञानी" - और मैं उस श्रेणी में नहीं आती हूँ ।

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