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शुक्रवार, 25 नवंबर 2011

श्रीमद्भगवद्गीता १.३

पश्यैतां पाण्डुपुत्राणां आचार्य महतीं चमूं ॥
व्यूढां द्रुपद पुत्रेण तव शिष्येण धीमता ॥३॥

दुर्योधन ने कहा :

हे गुरुवर (द्रोण ) , पाण्डु के पुत्रों की इस महान सेना को देखें जिसे आपके शिष्य धृष्टद्युम्न ने व्यूह में सजाया है |
यहाँ दुर्योधन सिर्फ द्रोण से सेना को देखने ही नहीं कह रहा , साथ ही उलाहना भी दे रहा है कि - हे आचार्य - आप महामूर्ख हैं | जब आप जानते ही थे कि द्रुपद ने यज्ञ कर के आपके ही खात्मे के लिए इस धृष्टद्युम्न को जन्म दिया है तो फिर तो उसे युद्ध नीति सिखाना निहायत ही मूर्खता रही आपकी | अब वही आज शत्रु सेना का सेनापति है |

यह भी है कि क्योंकि द्रोण एक मुख्य सेनापति हैं - और दोनों ही ओर अपने ही लोग युद्धरत हैं - तो दुर्योधन उन्हें फिर एक बार बताना चाहता है कि कौन अपनी ओर से लड़ेंगे और कौन दुश्मन हैं - कि बाद में कोई गड़बड़ी ना हो |

तीसरी बात यह है कि यह दिखता है कि दुर्योधन एक अच्छा योद्धा है - कि उसे मालूम है कि द्रोण और भीष्म उसके लिए कितने महत्त्वपूर्ण हैं | वह जानता है कि पाँचों पांडवों को इन दोनों बड़ों से बहुत लगाव है - खास तौर पर अर्जुन को | और अर्जुन ही पांडव सेना की मुख्य शक्ति है | तो पांडवों की आधी हार तो इन दोनों बुज़ुर्ग योद्धाओं के मेरी तरफ होने भर से हो जायेगी | और हुआ भी कुछ ऐसा ही - जब अर्जुन ने देखा यह सब तो वह कमज़ोर पड़ गया |

और यह ना सिर्फ कृष्ण जानते थे कि ऐसा होगा, बल्कि दुर्योधन, भीष्म और द्रोण भी जानते थे | भीष्म ने कृष्ण से कहा भी था , युद्ध से पहले, कि मेरे अर्जुन का खास ध्यान रखना | कृष्ण अर्जुन के सारथी बने ही इसलिए थे कि उसे गलत राह चुनने से रोक सकें |
चौथी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि दुर्योधन अपनी भावनाओं को युद्ध नीति पर भारी नहीं होने दे रहा - वह दिल से तो यह चाहता था कि उसका परम मित्र - कर्ण - ही उसकी सेना का प्रधान सेनापति हो - किन्तु यह भी कि उसकी महाबली साथी इस बात से कभी सहमत न होंगे | वे एक "सूत पुत्र" के ध्वज तले युद्ध ना करेंगे - उल्टा यह हो सकता था कि कई एक या तो युद्ध छोड़ देते - या पांडवों की ओर हो जाते | तो वह भीष्म को प्रधान सेनापति बनाने पर राज़ी हो गया था | इतनी बड़ी शर्त पर भी कि भीष्म ने कर्ण को सेना में लेने तक से इनकार कर दिया था | और इसके बावजूद भी कि वह इन दोनों बुजुर्गों को ना तो पसंद करता था - ना उनका आदर ही करता था - पर युद्धनीति के अनुसार उन दोनों का महत्व अच्छी तरह समझता था | तिस पर - भीष्म के बाद भी कोई योजना कर्ण को लेकर नहीं थी - अगले सेनापति द्रोण होंगे - यह लगभग (अनकहा ही सही ) तय था |

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इसके आगे के श्लोक दोनों सेनाओं के महारथियों की बातें करते हैं - जिसमे कुछ ख़ास नहीं है बताने के लिए | तो इसके बाद मैं दूसरे अध्याय के पहले श्लोक से ही शुरू करूंगी | दूसरा अध्याय पूरी गीता का निचोड़ कहा जा सकता है - करीब दस दस श्लोक हर एक अध्याय को समर्पित हैं |

पहले अध्याय में अब दोनों सेनाओं के योद्धाओं के नाम, उनकी महानता , और सेनाओं की बातें हैं | फिर अर्जुन श्री कृष्ण से कहता है कि वे रथ को युध्भूमि के मध्य में ले जाएँ - जिससे वह दोनों सेनाओं को साफ़ तौर पर देख समझ ले - कि आगे कोई गड़बड़ ना हो | इसकी वजह फिर से यही है कि दोनों ओर ही अपने परिवारजन हैं |

और जब वह देखता है - तो पूरी तरह परेशान, भ्रमित और मोहग्रस्त हो जाता है |

इस गीता आलेख के बाकी भागों (इससे पहले और बाद के) के लिए ऊपर गीता tab पर क्लिक करें |

शेष अगले अंक में - श्लोक २.१ से शुरू करते हैं |

जारी

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disclaimer:

कई दिनों से इच्छा थी, कि भगवद गीता की अपनी समझ पर लिखूं - पर डर सा लगता है - शुरू करते हुए भी - कि कहाँ मैं और कहाँ गीता पर कुछ लिखने की काबिलियत ?| लेकिन दोस्तों - आज से इस लेबल पर शुरुआत कर रही हूँ - यदि आपके विश्लेषण के हिसाब से यह मेल ना खाता हो - तो you are welcome to comment - फिर डिस्कशन करेंगे .... यह जो भी लिख रही हूँ इस श्रंखला में, यह मेरा interpretation है, मैं इसके सही ही होने का कोई दावा नहीं कर रही

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मेरे निजी जीवन में गीता जी में समझाए गए गुण नहीं उतरे हैं । मैं गीता जी की एक अध्येता भर हूँ, और साधारण परिस्थितियों वाली उतनी ही साधारण मनुष्य हूँ जितने यहाँ के अधिकतर पाठक गण हैं (सब नहीं - कुछ बहुत ज्ञानी या आदर्श हो सकते हैं) । गीता जी में कही गयी बातों को पढने / समझने / और आपस में बांटने का प्रयास भर कर रही हूँ , किन्तु मैं स्वयं उन ऊंचे आदर्शों पर अपने निजी जीवन में खरी उतरने का कोई दावा नहीं कर रही । न ही मैं अपनी कही बातों के "सही" होने का कोई दावा कर रही हूँ। मैं पाखंडी नहीं हूँ, और भली तरह जानती हूँ कि मुझमे अपनी बहुत सी कमियां और कमजोरियां हैं । मैं कई ऐसे इश्वर में आस्था न रखने वाले व्यक्तियों को जानती हूँ , जो वेदों की ऋचाओं को भली प्रकार प्रस्तुत करते हैं । कृपया सिर्फ इस मिल बाँट कर इस अमृतमयी गीता के पठन करने के प्रयास के कारण मुझे विदुषी न समझें (न पाखंडी ही) | कृष्ण गीता में एक दूसरी जगह कहते हैं की चार प्रकार के लोग इस खोज में उतरते हैं, और उनमे से सर्वोच्च स्तर है "ज्ञानी" - और मैं उस श्रेणी में नहीं आती हूँ ।

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