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शुक्रवार, 25 नवंबर 2011

श्रीमद्भगवद्गीता २.४

अर्जुन उवाच

कथं भीष्ममहं संख्ये द्रोणं च मधुसूदन |
इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन |४|

अर्जुन ने कहा - हे मधुसूदन मैं कैसे भीष्म और द्रोण की तरफ (प्रत्युत्तर में भी ) तीर कैसे चलाऊँगा , (क्योंकि), हे अरिसूदन, वे दोनों पूजनीय हैं |

अब हम अर्जुन के दर्द के मर्म को पहुँच रहे हैं | सारे पांडव भाइयों में शायद अर्जुन सबसे अधिक भावुक है | उसे अपने पितामह और गुरु दोनों से अत्यधिक प्रेम है - जो यहाँ आसक्ति बन कर प्रकट हो रहा है | इतना - की युद्ध में बाद में जब धृष्टद्युम्न ने गुरु द्रोण को मारा, तो अर्जुन उसे मार देने के लिए दौड़ा | और यह भी कि जबकि अर्जुन ने खुद अपने ही हाथों से भीष्म को घायल कर के गिराया, किन्तु इस क्रूर कर्त्तव्य को निभाने में वह बहुत दुखी हुआ था | किन्तु धर्म की जय के लिए यह करना ज़रूरी था, तो उसने यह किया | अपने निजी लाभ के लिए नहीं - अपने धर्मं (कर्त्तव्य)के लिए | अर्जुन ने जो भी किया इस युद्ध में, अपना कर्त्तव्य मान कर किया, कुछ पाने के लिए नहीं |

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युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन और दोनों माद्री पुत्र अलग अलग तरह की प्रवृत्तियों को दर्शाते हैं |

(१) युधिष्ठिर - ये धर्मराज के पुत्र कहे गए हैं, स्वयं भी धर्मराज हैं | ये ज्ञानी हैं, और इन्हें अपनी शिक्षा और अर्जित ज्ञान पर पूर्ण भरोसा है | यह "ज्ञान मार्ग" के यात्री हैं | इनका विश्वास है कि ये जानते हैं और समझते हैं वह समस्त बातें जो इन्हें अपने पथ का ज्ञान कराती हैं | ये अपने ज्ञान से -सोच समझ कर - निर्णय लेते हैं - फिर उस निर्णय पर चलते हैं | अपने निर्णय की पूरी ज़िम्मेदारी को ये स्वयं उठाते हैं - चाहे वह सही हो या कोई गलती हो | यह अपनी गलती को पीठ नहीं दिखाते - अपने ज्ञान से जो "पश्चाताप" इन्हें जिस गलती का करना चाहिए - ये करते हैं | जैसे द्यूत के बाद जो हुआ - उसके उत्तरदायित्व से यह भागे नहीं, इन्होने "पश्चाताप " किया - और १३ वर्ष के वनवास को "सज़ा" के रूप में स्वीकारा | यह बात और है कि वह सज़ा इनके साथ इनके भाइयों और पत्नी को भी सहनी पड़ी, किन्तु उन्होंने इन लोगों को बाध्य नहीं किया कि तुम भी मेरे साथ भुगतो सज़ा | वे लोग ही इनसे इतना प्रेम करते थे कि उन्होंने इनके साथ को चुना | पर यह उनके भी "किसी पुराने कर्म का फल है " यह मान कर युधिष्ठिर कभी उद्विग्न नहीं हुए |

(2) भीम : - भीम पवन पुत्र कहे गए हैं | पवन देवता के बारे में माना जाता है की प्रलय के बाद जब सब कुछ ब्रह्मा में लीन भी हो जाता है, तब भी पवन देव शांत नहीं होते (तीन तरह की प्रलय बताई गयी हैं - हर मन्वंतर पर, ब्रह्मा के हर दिन की समाप्ति पर और ब्रह्मा के जीवन काल के शांत होने पर - ब्रह्मा के शांत होने वाली महाप्रलय तक पवनदेव शांत नहीं होते - यह कहा गया है )| तो पवन देव का "ज्ञान" कभी नहीं खोता, और यह गुण भीम में है | किन्तु - पवन देव कभी अपने आप को ज्ञानी नहीं दिखाते, न भीम दिखाते हैं, न हनुमान ही ऐसा दिखाते हैं | परन्तु यह तीनो ही रूप शक्ति और ज्ञान के अनंत रूप हैं |

तो भीम ज्ञानी तो हैं - लेकिन ऊपरी , दिखावटी ज्ञान नहीं जो अपने श्रेष्ठ का आदर भूल जाएँ | उन्हें यह भी ज्ञान है कि कृष्ण कौन हैं, वे स्वयं के ज्ञान को सर्वोपरि नहीं मानते | वे जानते तो हैं कि उन्हें क्या करना है, परन्तु यदि श्री कृष्ण या युधिष्ठिर मौजूद हों, तो वे उनके कहे अनुसार चलते हैं | यदि नहीं - तो वे वह करते हैं जो उनका ज्ञान उन्हें करने को कहे | जैसे - जब कृष्ण ने कहा कि द्रोण से कहना है की "अश्वत्थामा मारा गया " तो भीम ने अपनी बुद्धि को कृष्ण से श्रेष्ठ न जाना- उन्होंने आज्ञा का पालन किया | यही देखने में आया - जरासंध वध के समय, और दुर्योधन की जंघा तोड़ते समय भी | भीम ने कोई सवाल नहीं किया - गदायुद्ध में जांघ पर कैसे मारूं? गुरु से झूठ कैसे कहूं ? लेकिन युधिष्ठिर ऐसा नहीं करते यदि भीम की जगह होते - वह वैसा करते जैसा उनका ज्ञान उन्हें कहता|

(३) अर्जुन - ज्ञान है - पर मोह भी | नर नारायण में अर्जुन नर को दर्शाता है | वह मोहित भी होता है, भ्रमित भी होता है , | अपनी बुद्धि भी लगाता है - अपने विवेक से सोच कर कृष्ण की बात पर सवाल भी करता है | कृष्ण के कह भर देने से जैसे भीम मान जाते हैं - अर्जुन नहीं मानता - उसे यह विश्वास दिलाना होता है की यह क्यों करना है - तब वह करता है - नहीं तो नहीं करता (भीम के साथ ऐसा नहीं है) | कई उदाहरण हैं जब उसने नहीं भी मानी कृष्ण की बात क्योंकि उसे ठीक नहीं लगी | पर यदि कृष्ण उसे समझा पाएं तो वह सुनने और मानने को तैयार है (युधिष्ठिर को समझाया नहीं जा सकता - वे वही करेंगे जो वे सही जानते हैं - नहीं - तो नहीं करेंगे ) |
यह "आधुनिक धार्मिकता " जैसा ही है कुछ कुछ | आज कई लोग हैं, जो धर्म के उतने स्वरुप को मानने के लिए तैयार हैं - जो "साइन्टीफिकली " उन्हें समझाया जा सके की यह क्यों होना चाहिए | गीता में आगे श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि "मैंने यह ज्ञान बहुत पहले सूर्य को दिया, उसने मनु को और मनु ने इक्ष्वाकु को ( जो श्री रामचंद्र वाले सूर्यकुल में हुए ) -- किन्तु समय के साथ यह ज्ञान लुप्त हो गया - आज मैं तुझे फिर से बता रहा हूँ" - उसे फिर से बताने की ज़रुरत इसलिए पड़ी की सुनते सुनते कई बातें गम हो जाती हैं - तो अब जो ज्ञान है, उसका विज्ञान (साइन्स ) खो गया है | कृष्ण यह भी कहते हैं अर्जुन से "मैं तुझे यह गूढ़ और गुप्त ज्ञान तुझे विज्ञान सहित समझा रहा हूँ, क्योंकि तू द्वेष रहित स्वीकारने और समझने के लिए खुला हुआ है |यह ज्ञान समझने के बाद तेरी सब शंका और दुःख दूर हो जायेंगे |"

इन तीनों को ऐसे समझें की - जब अर्जुन कृष्ण के कहने से कुछ करता है - तो फिर बाद में उसका भार अपने ऊपर नहीं रखता - यह ऐसा है कि जैसे वह रेलगाड़ी में बैठने से पहले यह चेक तो करता है की यह गाडी सही है भी या नहीं ; पर गाड़ी में बैठे के बाद कहता है की रेलगाड़ी मुझे और सामान दोनों को ही उठाये चल रही है - तो मुझे अपने सामान को सर पर उठाने की आवश्यकता नहीं है | भीम आंख बंद कर के उस रेल में चढ़ जाते हैं जो कृष्ण दिखाएं, और सामान तो वे साथ लेकर ही नहीं चलते !! और युधिष्ठिर - वे गाडी चुनते भी खुद हैं और सामान को सर पर भी रखे रहते हैं | वे अपने सामान का भार स्वयं उठाये रहते हैं | अपने कर्मों (शुभ और अशुभ दोनों कर्मों ) से सबसे अधिक युधिष्ठिर ही जुड़े हैं | अर्जुन ( कृष्ण के निर्देश में किये कर्मों से )कुछ कम जुड़ा है , और भीम ( कृष्ण के निर्देश में किये कर्मों से ) बिलकुल नहीं | हाँ जब भीम स्वयं निर्णय लेते हैं (जब कृष्ण और युधिष्ठिर दोनों न हों) - तब वे अपने कर्म का पूरा दायित्व लेते हैं |

(४) माद्री के दोनों पुत्र जैसा बड़े कहें, वैसा करते हैं | ये साधारण मानव को दर्शाते हैं | किन्तु अधिकतर "करना" ज्ञान / विज्ञान / सोच (यह तीनो शब्द पर्यायवाची नहीं हैं) के साथ नहीं - जैसे कि आज बड़े कहते हैं कि रोज़ दो अगरबत्ती जलानी है - इसलिए जला तो दी - पर क्यों, सोचे बिना | इसमें अपने किये कर्म से बंधन अधिक है क्योंकि हर कर्म के और उसके फल के मोह्बंधन बंधते जाते हैं |

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युधिष्ठिर धर्मराज थे, और आखरी पल तक भी (जबकि उनके भाई, पत्नी द्रौपदी और सारे शुभचिंतक उन पर युद्ध का दबाव दाल रहे थे) उन्होंने और श्री कृष्ण ने युद्ध रोकने की पूरी कोशिश की | वे जानते थे की एक राजा के रूप में मेरा कर्त्तव्य है अपने नागरिकों को रक्तपात से बचाना | तो सब तरफ से दबाव के होते हुए भी उन्होंने हर संभव प्रयास किया युद्ध न होने देने के लिए | उन्होंने अपनी एक भूल - जो उन्होंने द्यूत क्रीडा में की थी - के लिए पश्चाताप के रूप में १३ वर्ष का वनवास पूरी इमानदारी से निभाया | यदि युधिष्ठिर और कृष्ण धर्म पर और युद्ध रोकने पर इतने अटल न होते - तो यह युद्ध बहुत पहले हो गया होता | दुर्भाग्य से इन दोनों के अनेक प्रयासों से भी युद्ध टाला नहीं जा सका |

एक और गौर करने लायक बात यह है कि - जो अर्जुन अचानक अपने प्रियजनों को मृत्यु के सामने खड़ा देख कर "अहिंसावादी " हो गया है अचानक, युद्ध की मांग करने में वही सबसे ज्यादा मुखर था भीम के साथ !! युद्ध के शुरू होने से कुछ ही दिन पहले तक यही हाल था | और जो कृष्ण अर्जुन को अब यहाँ युद्ध करने के लिए समझा रहे हैं, सिर्फ वे अकेले ही युधिष्ठिर के साथ थे इस तबाही को रोकने के लिए |

उदहारण के लिए सोचिये - एक पिता पुत्र हैं | पिता जानते हैं की मेरे बेटे का कौशल अर्थशास्त्र में है | तो वह चाहता है की बारहवी के बाद बेटा अर्थशास्त्र पढ़े , किन्तु पुत्र देख रहा है कि सब कह रहे हैं डॉक्टर बनना चाहिए | पिता यह ठीक नहीं समझता, और बच्चे को समझाता है - पर वह नहीं मानता और मेडिकल में एडमिशन ले लेता है | अब फाइनल इयर की परीक्षा के समय बेटा नर्वस हो कर कहे की मैं यह छोड़ दूं और अर्थशास्त्र पढूं, तो पिता उसे कहेंगे की नहीं - अभी तेरा कर्त्तव्य है कि मन लगा कर पढ़ - जैसा भी तुझसे बने | तू मेहनत (कर्म) कर और पढ़ , ज्ञान सीख और परीक्षा लिख | परीक्षा का परिणाम भले ही कुछ भी निकले, कोई बात नहीं - अभी तू पढ़ - फिर चाहे तुझे १००% अंक मिले या की ० अंक मिले - कोई बात नहीं | तू अपनी पढाई कर | परिणाम तेरे हाथ में नहीं है | उसकी फ़िक्र न कर |

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जारी
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disclaimer:

कई दिनों से इच्छा थी, कि भगवद गीता की अपनी समझ पर लिखूं - पर डर सा लगता है - शुरू करते हुए भी - कि कहाँ मैं और कहाँ गीता पर कुछ लिखने की काबिलियत ?| लेकिन दोस्तों - आज से इस लेबल पर शुरुआत कर रही हूँ - यदि आपके विश्लेषण के हिसाब से यह मेल ना खाता हो - तो you are welcome to comment - फिर डिस्कशन करेंगे .... यह जो भी लिख रही हूँ इस श्रंखला में, यह मेरा interpretation है, मैं इसके सही ही होने का कोई दावा नहीं कर रही
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मेरे निजी जीवन में गीता जी में समझाए गए गुण नहीं उतरे हैं । मैं गीता जी की एक अध्येता भर हूँ, और साधारण परिस्थितियों वाली उतनी ही साधारण मनुष्य हूँ जितने यहाँ के अधिकतर पाठक गण हैं (सब नहीं - कुछ बहुत ज्ञानी या आदर्श हो सकते हैं) । गीता जी में कही गयी बातों को पढने / समझने / और आपस में बांटने का प्रयास भर कर रही हूँ , किन्तु मैं स्वयं उन ऊंचे आदर्शों पर अपने निजी जीवन में खरी उतरने का कोई दावा नहीं कर रही । न ही मैं अपनी कही बातों के "सही" होने का कोई दावा कर रही हूँ। मैं पाखंडी नहीं हूँ, और भली तरह जानती हूँ कि मुझमे अपनी बहुत सी कमियां और कमजोरियां हैं । मैं कई ऐसे इश्वर में आस्था न रखने वाले व्यक्तियों को जानती हूँ , जो वेदों की ऋचाओं को भली प्रकार प्रस्तुत करते हैं । कृपया सिर्फ इस मिल बाँट कर इस अमृतमयी गीता के पठन करने के प्रयास के कारण मुझे विदुषी न समझें (न पाखंडी ही) | कृष्ण गीता में एक दूसरी जगह कहते हैं की चार प्रकार के लोग इस खोज में उतरते हैं, और उनमे से सर्वोच्च स्तर है "ज्ञानी" - और मैं उस श्रेणी में नहीं आती हूँ ।

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