बहुत पुरानी बात है - एक गाँव था | वहां के लोग आग को नहीं जानते थे ... पर अँधेरा तो तब भी था न ...| और अँधेरे की वजह से रात के वक्त सब काम रुक जाते , और कभी किसी ज़रूरी काम से किसी को बाहर जाना ही पड़ता, तो स्वाभाविक है की कोई न कोई दुर्घटना कभी कभी घट ही जाती |
तो एक दिन गाँव वालों ने सभा बुलाई | एक समझदार व्यक्ति ने सुझाया की कल से सब एक एक टोकरी अँधेरा फेंक आयेंगे - धीरे धीरे अँधेरा ख़त्म हो जाएगा | तो यह प्रथा ही बन गयी - अँधेरा तो खैर क्या ख़त्म होता - यह अंधी प्रथा ज़रूर बन गयी |
कई बरस गुज़र गए | गाँव का एक लड़का कहीं बाहर गया - और एक युवती से प्रेम विवाह कर के लौटा | युवती की ससुराल में जो पहली रात हुई - घर की बड़ी औरतें उसे रिवाज़ समझाने लगीं - और उसे अँधेरा फेंकने को कहा | लड़की को बड़ी हंसी आई - उसने रुई मांगी, बत्ती बनाई, एक कटोरी में तेल डाला , और कोई दो पत्थर टकरा कर दिया जला दिया |.........
अँधेरा भी गया और प्रथा भी ..... :)
तो हम यह न सोचें की बुरे को गालियाँ देते रहने से, बुरा कहने से ठोकर मारने से या भला बनने से अँधेरा जाने वाला है | यदि अँधेरे को जीतना है - तो दिया जलाओ - किसी रामदेव की तरह - किसी विवेकानंद की तरह ---|
दिया परफेक्ट है या नहीं - यह मायने नहीं रखता - मायने रखता है - रौशनी को जलाना - यदि पहला दिया परिपूर्ण न हो - तो कोई बात नहीं - एक से दूसरा दिया जल जायेगा | लेकिन अगर हम दिया ही न जलाएं, या फिर पहले ही दिए से यह मांग हो की वह खामीराहित हो - तो अँधेरा कभी दूर नहीं हो पायेगा .........
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