कार्पण्यदोषोपहत्स्वभावः
पृच्छामि त्वाम् धर्मसम्मूढचेताः |
यच्छ्श्रेयोस्यान्निश्चितम्ब्रूहितन्मे
शिष्यस्ते अहं शाधिमांत्वाम्प्रपन्नं |७|
अर्जुन आगे बोला
मैं मन की दुर्बलता से आहत हूँ और अपनी (धर्म अधर्म की ) समझ खो बैठा हूँ | आपसे पूछ रहा हूँ कि जो उचित हो वह निश्चित कर के पक्के तौर पर मुझे बताइये - क्योंकि मैं अब आपका शिष्य हूँ और आपकी शरण में हूँ (शरणागत हूँ )
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जैसा कि हम जानते हैं, अर्जुन एक सुशिक्षित मनुष्य है, युद्ध कला में भी, और जीवन / धर्म / कर्तव्यपालन के विषय में भी | अभी तक कई बार वह अपने युद्ध कौशल की परीक्षा दे भी चुका है, और उत्तीर्ण भी कर चुका है | अनेकों युद्ध जीत चुका है | परन्तु यह कर्त्तव्य धर्म की परीक्षा है - जिसमे वह डांवा डोल हो रहा है | मन के भीतर तो अर्जुन भी जान रहा है कि उसका कर्त्तव्य क्या है | वह यह जानते बूझते भूल रहा है की यह युद्ध वह अपने निजी लाभ के लिए नहीं, युधिष्ठिर और स्वधर्म के लिए लड़ रहा है | एक योद्धा के रूप में और अपने राजा (युधिष्ठिर) के सेवक और अनुज के रूप में उसका धर्म है दुर्योधन की ओर से लड़ने वाले हर योद्धा से लड़ना - कि वे सब धर्म के विरोध में खड़े हैं |
परन्तु वह उस और खड़े लोगों से प्रेम करता है | यह प्रेम "मोह" बन कर उसे अपने कर्त्तव्य पथ पर चलने से रोक रहा है | वह खुल कर स्वीकार भी नहीं कर रहा कि मैं अपने कर्त्तव्य से भाग रहा हूँ क्योंकि मैं अपने प्रियजनों को खोना नहीं चाहता | तो वह धर्मं और प्रेम की गोल मोल बातों में अपनी इस मोह जनित अन्धता को छुपाने की कोशिश कर रहा है |
वह यह सच्चाई भी नहीं कहता कि "मैं अपने निजी प्रेम संबंधों के लिए अपने कर्त्तव्य की बलि देना चाहता हूँ " |
नहीं
पृच्छामि त्वाम् धर्मसम्मूढचेताः |
यच्छ्श्रेयोस्यान्निश्चितम्ब्रूहितन्मे
शिष्यस्ते अहं शाधिमांत्वाम्प्रपन्नं |७|
अर्जुन आगे बोला
मैं मन की दुर्बलता से आहत हूँ और अपनी (धर्म अधर्म की ) समझ खो बैठा हूँ | आपसे पूछ रहा हूँ कि जो उचित हो वह निश्चित कर के पक्के तौर पर मुझे बताइये - क्योंकि मैं अब आपका शिष्य हूँ और आपकी शरण में हूँ (शरणागत हूँ )
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जैसा कि हम जानते हैं, अर्जुन एक सुशिक्षित मनुष्य है, युद्ध कला में भी, और जीवन / धर्म / कर्तव्यपालन के विषय में भी | अभी तक कई बार वह अपने युद्ध कौशल की परीक्षा दे भी चुका है, और उत्तीर्ण भी कर चुका है | अनेकों युद्ध जीत चुका है | परन्तु यह कर्त्तव्य धर्म की परीक्षा है - जिसमे वह डांवा डोल हो रहा है | मन के भीतर तो अर्जुन भी जान रहा है कि उसका कर्त्तव्य क्या है | वह यह जानते बूझते भूल रहा है की यह युद्ध वह अपने निजी लाभ के लिए नहीं, युधिष्ठिर और स्वधर्म के लिए लड़ रहा है | एक योद्धा के रूप में और अपने राजा (युधिष्ठिर) के सेवक और अनुज के रूप में उसका धर्म है दुर्योधन की ओर से लड़ने वाले हर योद्धा से लड़ना - कि वे सब धर्म के विरोध में खड़े हैं |
परन्तु वह उस और खड़े लोगों से प्रेम करता है | यह प्रेम "मोह" बन कर उसे अपने कर्त्तव्य पथ पर चलने से रोक रहा है | वह खुल कर स्वीकार भी नहीं कर रहा कि मैं अपने कर्त्तव्य से भाग रहा हूँ क्योंकि मैं अपने प्रियजनों को खोना नहीं चाहता | तो वह धर्मं और प्रेम की गोल मोल बातों में अपनी इस मोह जनित अन्धता को छुपाने की कोशिश कर रहा है |
वह यह सच्चाई भी नहीं कहता कि "मैं अपने निजी प्रेम संबंधों के लिए अपने कर्त्तव्य की बलि देना चाहता हूँ " |
नहीं
वह यह गोल मोल ( झूठ )कहता है कि "मैं बड़ा महान त्यागी हूँ | तो मैं "गुरुजनों" के रक्त से सने राज सुख त्याग कर , युद्ध से मिलने वाले लाभ को त्याग कर, भीख मांग कर अपने जीवन को काटने का महान त्याग करने वाला हूँ |"
वह अपनी कर्त्तव्य पलायन की प्रवृत्ति को त्याग का जामा पहना रहा है | वह भी वह कृष्ण का approval लेकर करना चाहता है - कि तुम बताओ मैं क्या करूँ | लेकिन वह असलियत में उनकी बात सुनना ही नहीं चाहता - वह सिर्फ "ठप्पा लगवाना " चाह रहा है - अपने निश्चय पर कृष्ण की हाँ का ठप्पा !!! यदि वह सच ही पूछ रहा होता - तो २.२ और २.३ श्लोक में अभी ही कृष्ण कह चुके हैं कि - "इस विषम समय में यह गन्दगी तुम्हारे मन में कैसे आ गयी है ? यह आर्य जनो को शोभा नहीं देता | इस नपुंसकता को त्यागो और युद्ध करने उठ खड़े होओ !!" तो, तो यदि सच में पूछ रहा होता - तो पूछने की आवश्यकता बची ही नहीं है - कृष्ण अपना निर्णय अभी 4 श्लोक पहले ही कह चुके हैं | पर वह नहीं पूछ रहा - वह कृष्ण को समझा रहा है कि मैं सही हूँ - और पूछ सिर्फ यह रहा है कि तुम मेरे निर्णय पर अपनी सहमति की मोहर क्यों नहीं लगा रहे हो ?
जब हम जानते हैं कि यह सही है और यह गलत - तब हमें उस जानकारी के आधार पर अपना कर्त्तव्य निश्चित करना होता है | हमारे सही गलत की परिभाषा गलत हो सकती है | अर्थात - जब अर्जुन अपनी समझ में यह जानता है कि युधिष्ठिर सही हैं और दुर्योधन गलत - फिर उसका यह विश्वास हमारी और आपकी समझ से सही या गलत हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता - उसके मन के विश्वास ने उस के निज कर्त्तव्य को तो निर्धारित कर ही दिया है | जब उसके मन में विश्वास है कि युधिष्ठिर धर्म पथ पर हैं, तो फिर एक योद्धा के रूप में उसका कर्त्तव्य बन जाता है कि वह उनके विरुद्ध सेना में खड़े हर योद्धा से युद्ध करे - फिर चाहे वे लोग उसके अपने परिवारजन ही क्यों न हों !!! उसके युद्ध कौशल के सम्बल पर सेना आज युद्ध भूमि में है | इस वक़्त पलायन करना अधर्म होगा - क्योंकि वह इस सेना का एक प्रमुख सेनापति है - उसके जाने का असर यह भी हो सकता है कि धर्म की सेना हार जाए और अधर्म की सेना जीत जाए | युद्ध टालने का समय पीछे छूट चुका है |
इसी तर्ज पर - विभीषण ने रावण को तब त्यागा जब युद्ध का निर्णय अभी नहीं हुआ था | तो यह अधर्म नहीं, धर्म था | और युयुत्सु ने दुर्योधन को तब धोखा दिया, जब युद्ध में सेनायें आमने सामने थीं | यही निर्णय युयुत्सु पहले लेता - तो धर्म होता; किन्तु अब लेने से यह अधर्म है | कर्ण भी युद्ध के समय तक जान चुका था - कि मैं जिनसे लडूंगा वे मेरे भाई भी हैं और धर्म पथ पर भी हैं | किन्तु उसने दुर्योधन का साथ दिया क्योंकि उसकी अपनी समझ में यही उसका कर्त्तव्य था | तो कर्ण भी धर्म पथ पर है | यह कह कर मैं यह कहने की कोशिश कर रही हूँ की सिर्फ वे ही लोग धर्म पथ पर हों जो युधिष्ठिर के साथ हैं - ऐसा नहीं है | किसी के लिए धर्म है दुर्योधन का साथ देना भी !!!
अर्जुन यह भी नहीं जानता की हम जीतेंगे या हारेंगे, मैं इन लोगों को मारूंगा या वे मुझे , (हाँ उसे अपने युद्ध कौशल पर भरोसा है की मैं इन सब को हरा सकता हूँ ) फिर भी, प्रियजनों को मारने की संभावना भी उसे परेशान कर रही है |
वह दो श्लोक बाद ही "मैं नहीं लडूंगा हे कृष्ण" कह कर बैठ जाएगा - इसका अर्थ है की यह "मैं आपसे पूछ रहा हूँ" सिर्फ एक झूठ है - ऐसा झूठ जो वह कृष्ण से नही बल्कि खुद अपने आप से कह रहा है |
लेकिन - यह भी ध्यान देने की बात है की - श्री कृष्ण बार बार अर्जुन को यह तो बताते हैं की "यह सही राह होगी और यह गलत राह होगी" , किन्तु , वे कभी यह नहीं कहते की "यह करो और यह न करो" | सिर्फ इतना ही कहते हैं कि "यह करना उचित होगा और यह अनुचित होगा"| यह दर्शाता है कि ईश्वर हमारे भीतर से यह हमेशा बताते हैं कि क्या सही और क्या गलत होगा - पर हम पर कभी कोई जबरदस्ती नहीं होती |
गीतोपदेश के दौरान कृष्ण कई बार कहते हैं कि कर्म का अपना होना ही पाप पुण्य को निश्चित नहीं करता है | यह निश्चित इस बात से होता है कि उस कर्म के पीछे उद्देश्य क्या है |
जैसे दान देना मैं इसलिए कर सकती हूँ कि-
१) देखने वाले लोग मुझे "महान" समझें - तो उस कर्म का फल वहीँ मिल गया - न पाप है, न पुण्य |
२) इस जग में दान किया तो स्वर्ग मिलेगा - तो पुण्य है - यह मुझे बांधेगा (कुछ समय के लिए स्वर्ग में )
३) इस व्यक्ति को ज़रुरत है - मेरे पास है तो मेरा कर्त्तव्य है कि मैं इसकी सहायता करूं - तब यह निष्काम कर्म है |
और एक उदाहरण
एक व्यक्ति किसी को मार दे (kill )
१) क्योंकि वह राष्ट्र की सेना में है और दूसरा विरोधी सेना में - न पाप, न पुण्य | सिर्फ कर्त्तव्य (धर्म)|
२) क्योंकि वह इसकी कोई चीज़ हथियाना चाहता है - पाप |
तो -कर्म का अपना होना ही पाप पुण्य को निश्चित नहीं करता है | यह निश्चित इस बात से होता है की उस कर्म के पीछे उद्देश्य क्या है |
इस गीता आलेख के बाकी भागों (इससे पहले और बाद के) के लिए ऊपर गीता tab पर क्लिक करें
जारी
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disclaimer:
कई दिनों से इच्छा थी, कि भगवद गीता की अपनी समझ पर लिखूं - पर डर सा लगता है - शुरू करते हुए भी - कि कहाँ मैं और कहाँ गीता पर कुछ लिखने की काबिलियत ?| लेकिन दोस्तों - आज से इस लेबल पर शुरुआत कर रही हूँ - यदि आपके विश्लेषण के हिसाब से यह मेल ना खाता हो - तो you are welcome to comment - फिर डिस्कशन करेंगे .... यह जो भी लिख रही हूँ इस श्रंखला में, यह मेरा interpretation है, मैं इसके सही ही होने का कोई दावा नहीं कर रही
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मेरे निजी जीवन में गीता जी में समझाए गए गुण नहीं उतरे हैं । मैं गीता जी की एक अध्येता भर हूँ, और साधारण परिस्थितियों वाली उतनी ही साधारण मनुष्य हूँ जितने यहाँ के अधिकतर पाठक गण हैं (सब नहीं - कुछ बहुत ज्ञानी या आदर्श हो सकते हैं) । गीता जी में कही गयी बातों को पढने / समझने / और आपस में बांटने का प्रयास भर कर रही हूँ , किन्तु मैं स्वयं उन ऊंचे आदर्शों पर अपने निजी जीवन में खरी उतरने का कोई दावा नहीं कर रही । न ही मैं अपनी कही बातों के "सही" होने का कोई दावा कर रही हूँ। मैं पाखंडी नहीं हूँ, और भली तरह जानती हूँ कि मुझमे अपनी बहुत सी कमियां और कमजोरियां हैं । मैं कई ऐसे इश्वर में आस्था न रखने वाले व्यक्तियों को जानती हूँ , जो वेदों की ऋचाओं को भली प्रकार प्रस्तुत करते हैं । कृपया सिर्फ इस मिल बाँट कर इस अमृतमयी गीता के पठन करने के प्रयास के कारण मुझे विदुषी न समझें (न पाखंडी ही) | कृष्ण गीता में एक दूसरी जगह कहते हैं की चार प्रकार के लोग इस खोज में उतरते हैं, और उनमे से सर्वोच्च स्तर है "ज्ञानी" - और मैं उस श्रेणी में नहीं आती हूँ ।
वह अपनी कर्त्तव्य पलायन की प्रवृत्ति को त्याग का जामा पहना रहा है | वह भी वह कृष्ण का approval लेकर करना चाहता है - कि तुम बताओ मैं क्या करूँ | लेकिन वह असलियत में उनकी बात सुनना ही नहीं चाहता - वह सिर्फ "ठप्पा लगवाना " चाह रहा है - अपने निश्चय पर कृष्ण की हाँ का ठप्पा !!! यदि वह सच ही पूछ रहा होता - तो २.२ और २.३ श्लोक में अभी ही कृष्ण कह चुके हैं कि - "इस विषम समय में यह गन्दगी तुम्हारे मन में कैसे आ गयी है ? यह आर्य जनो को शोभा नहीं देता | इस नपुंसकता को त्यागो और युद्ध करने उठ खड़े होओ !!" तो, तो यदि सच में पूछ रहा होता - तो पूछने की आवश्यकता बची ही नहीं है - कृष्ण अपना निर्णय अभी 4 श्लोक पहले ही कह चुके हैं | पर वह नहीं पूछ रहा - वह कृष्ण को समझा रहा है कि मैं सही हूँ - और पूछ सिर्फ यह रहा है कि तुम मेरे निर्णय पर अपनी सहमति की मोहर क्यों नहीं लगा रहे हो ?
जब हम जानते हैं कि यह सही है और यह गलत - तब हमें उस जानकारी के आधार पर अपना कर्त्तव्य निश्चित करना होता है | हमारे सही गलत की परिभाषा गलत हो सकती है | अर्थात - जब अर्जुन अपनी समझ में यह जानता है कि युधिष्ठिर सही हैं और दुर्योधन गलत - फिर उसका यह विश्वास हमारी और आपकी समझ से सही या गलत हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता - उसके मन के विश्वास ने उस के निज कर्त्तव्य को तो निर्धारित कर ही दिया है | जब उसके मन में विश्वास है कि युधिष्ठिर धर्म पथ पर हैं, तो फिर एक योद्धा के रूप में उसका कर्त्तव्य बन जाता है कि वह उनके विरुद्ध सेना में खड़े हर योद्धा से युद्ध करे - फिर चाहे वे लोग उसके अपने परिवारजन ही क्यों न हों !!! उसके युद्ध कौशल के सम्बल पर सेना आज युद्ध भूमि में है | इस वक़्त पलायन करना अधर्म होगा - क्योंकि वह इस सेना का एक प्रमुख सेनापति है - उसके जाने का असर यह भी हो सकता है कि धर्म की सेना हार जाए और अधर्म की सेना जीत जाए | युद्ध टालने का समय पीछे छूट चुका है |
इसी तर्ज पर - विभीषण ने रावण को तब त्यागा जब युद्ध का निर्णय अभी नहीं हुआ था | तो यह अधर्म नहीं, धर्म था | और युयुत्सु ने दुर्योधन को तब धोखा दिया, जब युद्ध में सेनायें आमने सामने थीं | यही निर्णय युयुत्सु पहले लेता - तो धर्म होता; किन्तु अब लेने से यह अधर्म है | कर्ण भी युद्ध के समय तक जान चुका था - कि मैं जिनसे लडूंगा वे मेरे भाई भी हैं और धर्म पथ पर भी हैं | किन्तु उसने दुर्योधन का साथ दिया क्योंकि उसकी अपनी समझ में यही उसका कर्त्तव्य था | तो कर्ण भी धर्म पथ पर है | यह कह कर मैं यह कहने की कोशिश कर रही हूँ की सिर्फ वे ही लोग धर्म पथ पर हों जो युधिष्ठिर के साथ हैं - ऐसा नहीं है | किसी के लिए धर्म है दुर्योधन का साथ देना भी !!!
अर्जुन यह भी नहीं जानता की हम जीतेंगे या हारेंगे, मैं इन लोगों को मारूंगा या वे मुझे , (हाँ उसे अपने युद्ध कौशल पर भरोसा है की मैं इन सब को हरा सकता हूँ ) फिर भी, प्रियजनों को मारने की संभावना भी उसे परेशान कर रही है |
वह दो श्लोक बाद ही "मैं नहीं लडूंगा हे कृष्ण" कह कर बैठ जाएगा - इसका अर्थ है की यह "मैं आपसे पूछ रहा हूँ" सिर्फ एक झूठ है - ऐसा झूठ जो वह कृष्ण से नही बल्कि खुद अपने आप से कह रहा है |
लेकिन - यह भी ध्यान देने की बात है की - श्री कृष्ण बार बार अर्जुन को यह तो बताते हैं की "यह सही राह होगी और यह गलत राह होगी" , किन्तु , वे कभी यह नहीं कहते की "यह करो और यह न करो" | सिर्फ इतना ही कहते हैं कि "यह करना उचित होगा और यह अनुचित होगा"| यह दर्शाता है कि ईश्वर हमारे भीतर से यह हमेशा बताते हैं कि क्या सही और क्या गलत होगा - पर हम पर कभी कोई जबरदस्ती नहीं होती |
गीतोपदेश के दौरान कृष्ण कई बार कहते हैं कि कर्म का अपना होना ही पाप पुण्य को निश्चित नहीं करता है | यह निश्चित इस बात से होता है कि उस कर्म के पीछे उद्देश्य क्या है |
जैसे दान देना मैं इसलिए कर सकती हूँ कि-
१) देखने वाले लोग मुझे "महान" समझें - तो उस कर्म का फल वहीँ मिल गया - न पाप है, न पुण्य |
२) इस जग में दान किया तो स्वर्ग मिलेगा - तो पुण्य है - यह मुझे बांधेगा (कुछ समय के लिए स्वर्ग में )
३) इस व्यक्ति को ज़रुरत है - मेरे पास है तो मेरा कर्त्तव्य है कि मैं इसकी सहायता करूं - तब यह निष्काम कर्म है |
और एक उदाहरण
एक व्यक्ति किसी को मार दे (kill )
१) क्योंकि वह राष्ट्र की सेना में है और दूसरा विरोधी सेना में - न पाप, न पुण्य | सिर्फ कर्त्तव्य (धर्म)|
२) क्योंकि वह इसकी कोई चीज़ हथियाना चाहता है - पाप |
तो -कर्म का अपना होना ही पाप पुण्य को निश्चित नहीं करता है | यह निश्चित इस बात से होता है की उस कर्म के पीछे उद्देश्य क्या है |
इस गीता आलेख के बाकी भागों (इससे पहले और बाद के) के लिए ऊपर गीता tab पर क्लिक करें
जारी
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disclaimer:
कई दिनों से इच्छा थी, कि भगवद गीता की अपनी समझ पर लिखूं - पर डर सा लगता है - शुरू करते हुए भी - कि कहाँ मैं और कहाँ गीता पर कुछ लिखने की काबिलियत ?| लेकिन दोस्तों - आज से इस लेबल पर शुरुआत कर रही हूँ - यदि आपके विश्लेषण के हिसाब से यह मेल ना खाता हो - तो you are welcome to comment - फिर डिस्कशन करेंगे .... यह जो भी लिख रही हूँ इस श्रंखला में, यह मेरा interpretation है, मैं इसके सही ही होने का कोई दावा नहीं कर रही
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मेरे निजी जीवन में गीता जी में समझाए गए गुण नहीं उतरे हैं । मैं गीता जी की एक अध्येता भर हूँ, और साधारण परिस्थितियों वाली उतनी ही साधारण मनुष्य हूँ जितने यहाँ के अधिकतर पाठक गण हैं (सब नहीं - कुछ बहुत ज्ञानी या आदर्श हो सकते हैं) । गीता जी में कही गयी बातों को पढने / समझने / और आपस में बांटने का प्रयास भर कर रही हूँ , किन्तु मैं स्वयं उन ऊंचे आदर्शों पर अपने निजी जीवन में खरी उतरने का कोई दावा नहीं कर रही । न ही मैं अपनी कही बातों के "सही" होने का कोई दावा कर रही हूँ। मैं पाखंडी नहीं हूँ, और भली तरह जानती हूँ कि मुझमे अपनी बहुत सी कमियां और कमजोरियां हैं । मैं कई ऐसे इश्वर में आस्था न रखने वाले व्यक्तियों को जानती हूँ , जो वेदों की ऋचाओं को भली प्रकार प्रस्तुत करते हैं । कृपया सिर्फ इस मिल बाँट कर इस अमृतमयी गीता के पठन करने के प्रयास के कारण मुझे विदुषी न समझें (न पाखंडी ही) | कृष्ण गीता में एक दूसरी जगह कहते हैं की चार प्रकार के लोग इस खोज में उतरते हैं, और उनमे से सर्वोच्च स्तर है "ज्ञानी" - और मैं उस श्रेणी में नहीं आती हूँ ।
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