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शुक्रवार, 25 नवंबर 2011

श्रीमद्भगवद्गीता २.६


न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयो-
यद्वा जयेमः यदि वा नो जयेयुः |
यानेव हत्वा न जिजीविषाम -
स्ते अवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः |६|
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अर्जुन ने आगे कहा - हम ये भी नहीं जानते कि क्या बेहतर है (क्या होगा नहीं , बल्कि क्या बेहतर है ) यह कि हम उन पर विजय पाएं, या फिर ये कि हम उनसे हार जाएँ | ये प्रियजन जिन्हें हम मारना नहीं चाहते - जिनकी हत्या कर के जीने की इच्छा ही ना बचेगी - वे ही ध्रुतराष्ट्र के पुत्र आज युद्ध में हमारे सम्मुख उपस्थित हैं |
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अर्जुन की समस्या है उसका अपने परिवार के प्रति मोह | कृपया याद करें, पांडव (युधिष्ठिर नहीं - बाकी चारों भाई ) दुर्योधन और दुःशासन से बहुत क्रोधित हैं | इन दोनों ने हमेशा पांडवों के साथ छल किया | परन्तु बाकी के कौरव भाइयों से अर्जुन की कोई शत्रुता नहीं है | आखिर ये सब चचेरे भाई हैं, एक ही साथ खेलते कूदते बड़े हुए हैं, एक ही गुरुकुल में पढ़े | कई बहुत ही निकट के सम्बन्ध भी रहे होंगे भाइयों के आपस में | किन्तु जब स्थिति युद्ध की आ पहुंचे, तो स्वाभाविक तौर पर अधिकतर कौरव भाई दुर्योधन की ओर खड़े हैं | यदि दुर्योधन तक पहुंचना हो (युद्ध के सही समापन के लिए यह ज़रूरी है अर्जुन की नज़र में ) - तो इन सारे भाइयों को मारना ही होगा |

असलियत में , अधिकतर भाइयों की मृत्यु भीम के माध्यम के द्वारा आयी , अर्जुन को ज्यादा प्रिय जनों को मारना नहीं पडा | ........उसने भीष्म पर बाण अवश्य चलाये , किन्तु उनकी मृत्यु इच्छा मृत्यु थी, ........सभी कौरव भाइयों को भीम ने मारा - सभी को , ........गुरु द्रोण को धृष्टद्युम्न ने मारा | हाँ , कर्ण को अवश्य अर्जुन ने मारा, परन्तु तब वह नहीं जानता था कि कर्ण उसका बड़ा भाई है |

और भीम कभी अपना धर्म निभाने में विचलित नहीं हुए, न ९८ कौरवों (जिनसे कोई शत्रुता न थी) को मारने में, न गुरु से झूठ बोलने में | क्योंकि भीम जानते थे कि वे अपने लिए नहीं - धर्म के लिए यह सब कर रहे हैं | तो वे विचलित नहीं होते थे | सिर्फ दुर्योधन और दुःशासन को मारने में भीम का निज "मैं" शामिल था, और वही उनका फल युक्त कर्म था इस पूरे युद्ध में | बाकी भाइयों से लड़ने से पहले भीम उन्हें चेताते भी थे कि "हे भाई, तुमसे मेरी कोई शत्रुता नहीं , पर दुर्योधन तक पहुँचने के लिए तुमसे लड़ना पड़ेगा ही | यदि तुम मुझे न रोको , तो मैं तुमसे न लडूं |" परन्तु वे अपने धर्म पर थे, और दुर्योधन को बचाने के लिए उन्होंने अपने प्राणों की आहुति दी |

एक और बात - अर्जुन यह नहीं कह रहा कि "अपने भाइयों" को कैसे मारूं | वह कह रहा है कि "ध्रुतराष्ट्र के पुत्रों" को कैसे मारूं, क्या मारना उचित है ? यह अर्जुन की मनः स्थिति दर्शाता है | यदि अब भी ध्रुतराष्ट्र समझ गया होता (यह सब कुछ संजय ध्रुतराष्ट्र को ही सुना रहे हैं ) तो यह युद्ध यहाँ तक आ कर भी रोका जा सकता था | क्योंकि यह जो सेना युद्ध में उतारी है - यह दुर्योधन की नहीं, ध्रुतराष्ट्र की सेना है |

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जारी
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disclaimer:

कई दिनों से इच्छा थी, कि भगवद गीता की अपनी समझ पर लिखूं - पर डर सा लगता है - शुरू करते हुए भी - कि कहाँ मैं और कहाँ गीता पर कुछ लिखने की काबिलियत ?| लेकिन दोस्तों - आज से इस लेबल पर शुरुआत कर रही हूँ - यदि आपके विश्लेषण के हिसाब से यह मेल ना खाता हो - तो you are welcome to comment - फिर डिस्कशन करेंगे .... यह जो भी लिख रही हूँ इस श्रंखला में, यह मेरा interpretation है, मैं इसके सही ही होने का कोई दावा नहीं कर रही
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मेरे निजी जीवन में गीता जी में समझाए गए गुण नहीं उतरे हैं । मैं गीता जी की एक अध्येता भर हूँ, और साधारण परिस्थितियों वाली उतनी ही साधारण मनुष्य हूँ जितने यहाँ के अधिकतर पाठक गण हैं (सब नहीं - कुछ बहुत ज्ञानी या आदर्श हो सकते हैं) । गीता जी में कही गयी बातों को पढने / समझने / और आपस में बांटने का प्रयास भर कर रही हूँ , किन्तु मैं स्वयं उन ऊंचे आदर्शों पर अपने निजी जीवन में खरी उतरने का कोई दावा नहीं कर रही । न ही मैं अपनी कही बातों के "सही" होने का कोई दावा कर रही हूँ। मैं पाखंडी नहीं हूँ, और भली तरह जानती हूँ कि मुझमे अपनी बहुत सी कमियां और कमजोरियां हैं । मैं कई ऐसे इश्वर में आस्था न रखने वाले व्यक्तियों को जानती हूँ , जो वेदों की ऋचाओं को भली प्रकार प्रस्तुत करते हैं । कृपया सिर्फ इस मिल बाँट कर इस अमृतमयी गीता के पठन करने के प्रयास के कारण मुझे विदुषी न समझें (न पाखंडी ही) | कृष्ण गीता में एक दूसरी जगह कहते हैं की चार प्रकार के लोग इस खोज में उतरते हैं, और उनमे से सर्वोच्च स्तर है "ज्ञानी" - और मैं उस श्रेणी में नहीं आती हूँ ।

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