संजय उवाच
एवमुक्त्वा हृषीकेशं , गुडाकेशः परन्तप |
न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह ||
निद्रा को जीतने वाला अर्जुन , हृषीकेश (कृष्ण ) से , "हे गोविन्द, बस, मैं युद्ध नहीं करूंगा " ऐसा कह कर चुप हो गया |
इतने सारे तर्क (या वितर्क ?){कि उसे युद्ध करना उचित क्यों नहीं है } देकर अर्जुन अपने आप को convince कर चुका है कि यह युद्ध नहीं करना ही उसके लिए उचित है |
ध्यान दें कि
(१) वह सुशिक्षित है, अपना कर्त्तव्य जानता है | यह भी जानता है कि धर्मयुद्ध से पलायन धर्म विरुद्ध है
(२) यह भी कि वह "अहिंसा" के लिए नहीं, बल्कि प्रियजनों की मृत्यु के डर से यह कर रहा है |
(३) यदि प्रिय पितामह और गुरुदेव (और कौरवों में से कुछ गिने चुने प्रिय भाई ) बच सकें, तो उसे युद्ध में होने वाली हिंसा / खो जाने वाली जानों ) से कोई आपत्ति नहीं है - वह कोई अहिंसावादी नहीं है - पहले भी कई सारे युद्ध कर चुका है, और आगे भी करेगा |
(४) यह भी जानता है कि मैं प्रियजनों के मोह में पड़ कर अपने कर्त्तव्य से भाग रहा हूँ | अभी पीछे ही कृष्ण को गुरु कह कर उनकी शरण स्वीकारी है, अभी ही उन्ही गुरु को अपना निर्णय दे रहा है कि मैं युद्ध नहीं करूंगा - कि यह उचित नहीं है |
(५) अभी दो श्लोक पहले उसने कृष्ण को गुरु स्वीकारा और उनकी शरण में आया , यह कह कर कि "शिष्यस्ते अहम् , शाधिमाम त्वाम प्रपन्नम"
अब, जब तुम जानते ही हो कि क्या करना उचित है और तुम्हे क्या करना है, और तुम स्थिर हो कि तुम वही करोगे, तो कैसी शरणागति ? यह ऐसा है कि बच्चा teacher से कहे कि मुझे maths नहीं आता, सिखाइए, फिर जब teacher कहे कि २+२=४ तो बच्चा बोले कि नहीं यह तो ३ होना चाहिए, ४ नहीं | :)
पर कृष्ण तो सद्गुरु हैं न? वे कैसे अपनी शरण में आये अर्जुन को गलत राह पर जाने देंगे ? तो वे उसे समझाते हैं अब |
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सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदं वचः ||
उसकी इन बातों को सुन कर, हँसते हुए से, श्री कृष्ण ने , दोनों सेनाओं के मध्य खड़े हुए ,उस दुखी (अर्जुन) से ,ये वचन कहे |
कृष्ण हंस रहे हैं | किन्तु यह हंसी शिष्य की हंसी उड़ने वाली हंसी नहीं, बल्कि उसे encouragement देने के लिए, उसका tension कम करने के लिए है | उन्हें अर्जुन के सारे विरोधाभास दिख रहे हैं, जो उसे स्वयं को नहीं दिख रहे |
युद्ध से पहले जब कृष्ण युद्ध टालने के प्रयास कर रहे थे - तब यही अर्जुन युद्ध के लिए लालायित था | उस पर तब प्रतिशोध का भूत सवार था | तब भी यह विदित था कि युद्ध होगा तो किनसे लड़ना होगा, कौन प्रिय जन जान हथेली पर ले कर युद्ध करेंगे | किन्तु तब उसने युद्ध चुना | इसलिए नहीं कि यह न्यायोचित या धर्मोचित था, बल्कि इसलिए कि उसे द्रौपदी के अपमान का बदला लेना था |
कृष्ण और युधिष्ठिर युद्ध टालना चाहते थे, किन्तु चारों छोटे पांडव भाई युद्ध चाहते थे | अब युद्ध छिड़ गया है, भेरियां बज गयी हैं | अब युद्ध छोड़ देने का अर्थ है, अन्याय को धर्म पर जीत जाने देना |
यहाँ से असल गीता का ज्ञान दिया जाता है | यह सब सिर्फ भूमिका थी | अब कृष्ण का गीत है - जिसे श्रीमद (श्री)- भगवद (भगवान की) गीता (गीत) कहते हैं | यह दिव्य गीत अगले श्लोक से शुरू होगा |
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जारी
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disclaimer:
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कई दिनों से इच्छा थी, कि भगवद गीता की अपनी समझ पर लिखूं - पर डर सा लगता है - शुरू करते हुए भी - कि कहाँ मैं और कहाँ गीता पर कुछ लिखने की काबिलियत ?| लेकिन दोस्तों - आज से इस लेबल पर शुरुआत कर रही हूँ - यदि आपके विश्लेषण के हिसाब से यह मेल ना खाता हो - तो you are welcome to comment - फिर डिस्कशन करेंगे .... यह जो भी लिख रही हूँ इस श्रंखला में, यह मेरा interpretation है, मैं इसके सही ही होने का कोई दावा नहीं कर रही
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मेरे निजी जीवन में गीता जी में समझाए गए गुण नहीं उतरे हैं । मैं गीता जी की एक अध्येता भर हूँ, और साधारण परिस्थितियों वाली उतनी ही साधारण मनुष्य हूँ जितने यहाँ के अधिकतर पाठक गण हैं (सब नहीं - कुछ बहुत ज्ञानी या आदर्श हो सकते हैं) । गीता जी में कही गयी बातों को पढने / समझने / और आपस में बांटने का प्रयास भर कर रही हूँ , किन्तु मैं स्वयं उन ऊंचे आदर्शों पर अपने निजी जीवन में खरी उतरने का कोई दावा नहीं कर रही । न ही मैं अपनी कही बातों के "सही" होने का कोई दावा कर रही हूँ। मैं पाखंडी नहीं हूँ, और भली तरह जानती हूँ कि मुझमे अपनी बहुत सी कमियां और कमजोरियां हैं । मैं कई ऐसे इश्वर में आस्था न रखने वाले व्यक्तियों को जानती हूँ , जो वेदों की ऋचाओं को भली प्रकार प्रस्तुत करते हैं । कृपया सिर्फ इस मिल बाँट कर इस अमृतमयी गीता के पठन करने के प्रयास के कारण मुझे विदुषी न समझें (न पाखंडी ही) | कृष्ण गीता में एक दूसरी जगह कहते हैं की चार प्रकार के लोग इस खोज में उतरते हैं, और उनमे से सर्वोच्च स्तर है "ज्ञानी" - और मैं उस श्रेणी में नहीं आती हूँ ।