मैं ओशो को बहुत पढ़ती हूँ - सब कुछ तो समझ में नहीं आता - पर अच्छा लगता है पढ़ कर ... वैसे समझ में न आने जैसा तो वे कुछ कहते नहीं - बहुत ही सरल सीढ़ी बातें होती हैं -- इतनी सरल , कि हमारे घुमावदार विचारों में घुस पाना मुश्किल हो जाता है कभी कभी... कहीं पढ़ा कुछ .. अच्छा लगा - तो कही बैठा रह गया दिमाग में ..... और न लगा -तो कुछ बिगड़ा तो नहीं ही !! यूँ ही कुछ याद आ रही है - धुंधली सी एक कहानी याद - उसमे कहाँ कहाँ मूल कहानी है ... और कहाँ मेरे कुछ विचार गड्ड मड्ड हुए हैं - ये तो मैं नहीं कह सकती - पर सब हैं उसी में समाविष्ट .....
उन्होंने कहा था - अन्धकार से भरी रात्रि में - प्रकाश कि एक किरण का होना भी सौभाग्य है - क्योंकि जो उस का अनुसरण करे - वह उसके स्रोत तक पहुँच ही जाएगा.....( पता नहीं ऐसा क्यों कहते हैं लोग कि - धर्मं का प्रकाश हो - अन्धकार का नाश हो ... किसका नाश करोगे? अन्धकार तो वह है - जो है ही नहीं - और जो नहीं ही हो - उसका नाश कैसे हो? अन्धकार तो प्रकाश का अभाव भर है न - यदि प्रकाश हो - एल छोटी सी दिए कि लौ भी जला दी जाए - तो अन्धकार तो होगा ही नहीं - तो नाश किसका करोगे? और यदि नहीं जलाई - तो अन्धकार घिर आना ही है - उसका फिर भी नाश हो ही नहीं सकता !!! )प्रकाश की एक किरण के सहारे - उसका स्त्रोत्र निश्चित रूप से तलाशा भी जा सकता है - और पाया भी...
अब आखिर जब हम किसीको ढूँढते हैं - तो दिख जाने पर - पाया हुआ मानते हैं .. पा लेने कि परिभाषा क्या है हमारे लिए? देख ही लेना न? और देखना क्या है - कि उस स्त्रोत्र से चली प्रकाश के किरणें हमारी आँख में पड़ीं - यही है "दिखना" ......किसी और प्रकार से अनुभूति पा लेना .. कि किसीको सुन लिया - कि दुर्योधन ने तेरहवे वर्ष के अज्ञात वास के अंत में - अर्जुन के शंख को सुना - और कहा - कि मैंने पांडवों को पा लिया!!!! या की हम किसी खोजी कुत्ते को लेकर किसी को तलाशना चाहें - और उसे उसकी गंध मिल जाए - तो हम कहते हैं की पा लिया समझो अब तो !! तो निष्कर्ष ये - की अनुभूति - किसी भी प्रकार के ही हो सही - ही हमारे "पा लेने " कि व्याख्या है! पांच ज्ञानेंद्रियें हैं - द सेन्सेज ऑफ़ साईट, हीअरिंग, स्मेल, टच, टेस्ट .. (देखना, सुनना सूंघना, छूना , आस्वादन कर लेना ) इनमे से किसी भी एक प्रकार की अनुभूति ही हमारी "पा लिया" कि परिभाषा है!! किसीसे आप बरसों से न मिले - और उसकी आवाज़ सुन ली फ़ोन पर - तो पा लिया, या कि उसका पत्र मिला - पढ़ लिया - तो पा लिया .. या कि कंप्यूटर ऑन किया - इन्टरनेट लगाया .. मेल या चैट पर पढ़ लिया - तो भी पा लिया ही लगता है.... मेरे निकट तम मित्र - जिनसे मैं मिलती ही नहीं कभी - मेल पर ही लगता है कि बस - मिले ही हुए हैं!!!! अब समझ आती है ओशो कि वह बात - जो कि उनके किसी प्रकाशित पत्र में पढ़ी थी..... कि प्रकाश की एक किरण का भी होना सौभाग्य है - एक अन्धकार भरी रात्रि के लिए...
एक कहानी है - एक राजा ने किसी बात पर नाराज़ हो कर अपने मंत्री को एक ऊंची मीनार पर कैद करवा दिया - कैद क्या - धीमी मौत कि ही सज़ा थी .. कि उस गगन चुम्बी ईमारत पर न तो कोई उसे खाना ही पहुंचा सकता था - न ही भाग निकलने का कोई रास्ता था... जब उसे कैद करके मीनार के ओर ले जाया जा रहा था - तो वह परेशान नहीं था - मुस्कुरा रहा था .. पत्नी ने बहुत रोते हुए पुछा कि वह इतना खुश क्यों है? तो उसने कहा - यदि रेशम का एक अत्यंत ही पतला सूत भी मुझ तक पहुँचाया जा सके - तो मैं बाहर आ जाऊं - और इतना तो तुम कर ही सकोगी...
तो वह भी तो आखिर उस ही के पत्नी थी - इतने साल साथ गुज़ारे थे - समझदारी के कोई कमी न थी -- सोचने लगी .. सोचती रही - पर हल न मिला ... पर कहते हैं न - सफलता के लिए सिर्फ अपने दिमाग का भरोसा लिया जाए - यह ज़रूरी नहीं .. आजकल तो हम - बच्चों के होमेवर्क के लिए भी - गूगल से विकिपीडिया से या किसी और वेबसाइट से हेल्प ढूँढते हैं .. ज़रूरी यह है - कि हम जानें - कि हेल्प ढूँढनी कहाँ है.... तो वो कुछ देर सोचती रही - नहीं सूझा - तो एक बुद्धिमान फ़कीर से पुछा - आखिर सोचने ही में समय ख़राब किया - तो पति वहां भूखा प्यासा उतने समय तक...... तो फ़कीर ने कहा - एक भृंग (कीड़ा, इन्सेक्ट) को लो - और उसकी मूछों पर शहद लगा कर , पाँव में रेशम का धागा बांध, ऊपर के ओर मुंह कर के - मीनार पर छोड़ दो.. ऐसा ही किया भी गया .... अब शहद के लोभ में वह भृंग रात भर चढ़ता रहा - और ऊपर पहुँच गया.. फिर क्या - रेशम के धागे से सूत का धागा पहुंचा -- उस से डोरी , डोरी से रस्सी - फिर उस से मोटा रस्सा ऊपर पहुँचाया गया .. और वह कैद से बाहर हो गया ...
इसीलिए ... सूर्य को पाना हो - तो प्रकाश के एक किरण ही बहुत है - कि वह उसी का एक विस्तार है -- कि जिसने किरण को पाया - उसने सूर्य को पाने का उपाय पा लिया ... सूर्य को पाने के लिए सूर्य को पकड़ना थोड़े ही ज़रूरी है!!!! हमारे भीतर जो जीवन है - वह इश्वर की किरण है - और जो बोध है - बुद्धत्व की बूँद है - जो आनंद है - वह सच्चिदानंद की झलक है ....
तो - अगली बार मिलने तक ... सायोनारा , दसविदानिया ....
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