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शुक्रवार, 25 नवंबर 2011

श्रीमद्भगवद्गीता २.२

श्री भगवानुवाच
कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम ॥
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन ॥२॥


श्री भगवान कृष्ण ने अर्जुन से कहा - हे अर्जुन - इस विषम अवसर पर तुम्हारे मन में यह कल्मष कहाँ से आ गया? यह आर्य जन द्वारा किया जाने योग्य आचरण नहीं ( या - यह अनार्य जन द्वारा किया जाने वाला आचरण है) , यह स्वर्ग को नहीं दिलाएगा,और तुम्हारी बदनामी भी कराएगा हे अर्जुन |

अब यह बडी ही सोचने योग्य बात है | अर्जुन तो बात कर रह है कि खून खराबा रोकने के लिये राज्य, धन सब त्याग दे - और करोड़ों जिंदगियां बचा लें | अधिकाधिक जन तो इसे महात्याग कहेंगे, और अर्जुन के त्याग की तारीफ़ करेंगे, कि देखो राज्य, धन, सब कुछ छोड़ कर यह आदमी रक्तपात रोकना चाह रहा है | लेकिन श्री कृष्ण - जो ज्ञान की परिसीमा हैं - इस विचार को मन की गन्दगी कह रहे हैं?? यह बात ज्यादातर लोगों के गले नहीं उतरती |

साधारण तौर पर हम सोचते हैं कि हर कीमत पर खूनखराबे से बचना चाहिए | ऐसा सोचें कि - एक आतंकवादी कई लोगों को एक बम से उड़ा देना चाह रहा है - और वहां जो सैनिक कमांडो खड़ा हैं - वह उस आतंकवादी का चचेरा भाई है | तो क्या आप उस सिपाही का पीछे हट जाने को त्याग कहेंगे , या कल्मष ? आज की क़ानून प्रणाली भी असाधारण मामलों में मौत की सजा का प्रावधान स्वीकार करती है | खैर - आगे बढ़ते हैं |
एक बात मुझे बताइये - कुछ गिने चुने अराजक तत्वों , आतंकवादियों आदि के कुकर्मों से हमारे आधुनिक समाज में भी , पढ़े लिखे लोगों में भी , गुस्से के क्षणों में - क्या युद्ध की इच्छा नहीं जागती ? लाख कोई कहे कि (- उदाहरण मात्र के लिए -) भारत और पाकिस्तान के साधारण नागरिक तो एक जैसे इंसान ही हैं ना? लेकिन - जैसा कि कल (१३/७/११) हुआ - मुंबई में तीन सीरिअल ब्लास्ट हुए | नेता सीधा सीधा ना भी कहे तो भी अप्रत्यक्ष संकेत तो देते ही हैं कि यह "पाकिस्तान स्पोंसर्ड टेररिस्टों का किया हुआ हमला है - तो एक घटना को आप नज़रंदाज़ कर दे शायद - लेकिन जब लगातार ऐसे घटनाक्रम बार बार होने लगें - तो क्या नागरिक जन अपनी सरकार पर दबाव नहीं बनाने लगते कि युद्ध छेड़ दिया जाए ? क्या युद्ध में खूनखराबा नहीं होगा - अनेकानेक सैनिक नहीं मारे जायेंगे ? उनके (दोनों ही ओर से लड़ने वाले सैनिको के ) परिवार नहीं बिखर जायेंगे ? लोग कहते हैं कि महाभारत युद्ध में जो लाखों लाख लोग मारे गए - उनकी क्या गलती थी ? तो मैं पूछती हूँ आपसे - उन भारतीय और पाकिस्तानी सैनिकों (दोनों ही ओर के सैनिकों की बात कर रही हूँ मैं - सिर्फ भारत के सैनिकों की नहीं | जैसे भारत का सैनिक अपने देश के लिए शहीद हो रहा है - वैसे ही उधर का सीनिक भी अपने मुल्क के लिए )और उनके परिवारों की क्या गलती है जिनसे हम एक्स्पेक्ट करते हैं कि वे युद्ध में जान दे दें - और हम बाद में उनको "शहीद" का लेबल दे देंगे - और अपनी ज़िम्मेदारी से मुक्ति पा लेंगे ? क्यों ? युद्ध की मांग तो हम कर रहे हैं ना ? फिर युद्ध के बाद हम उन परिवारों के भरण पोषण और देख रेख की ज़िम्मेदारी सरकार के भरोसे क्यों छोड़ देते हैं?

और - आज का जो नागरिक कह रहा है कि महाभारत का युद्ध रुकना चाहिए था - तो क्या हक है उसे आज यह मांग करने का कि आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध हो? आज के नागरिक को अपनी समस्या तो दिखती है - कि मेरा सड़क पर चलना भी खतरनाक हो गया है कि कब ब्लास्ट में मैं मर जाऊं - किन्तु उन्हें यह लगता है कि अर्जुन यदि युद्ध छोड़ देता - और कृष्ण उसे छोड़ने देते - तो ठीक होता !! क्या यह दोहरे मापदंड नहीं हैं?

आप पूछेंगे - उन सैनिकों की क्या गलती थी ? कुछ नहीं - कोई गलती नहीं - सिर्फ उनका सैनिक धर्मं था (उस समय की भाषा में - क्षत्रिय धर्मं ) | जब एक इंसान सेना में ज्वाइन करता है - तो वह जानता है कि यदि युद्ध हुआ - तो मुझे लड़ना होगा - और शायद अपना जीवन भी देना पड़े | यह जानते हुए ही वह वहां जाता है | और जब युद्ध छिड़ गया हो - तो युद्ध स्थल से वह यह कह कर जाने लगे कि मैं तो खून खराबा नहीं चाहता, इसीलिए युद्ध छोड़ रहा हूँ , - तो आप उसे त्यागी कहेंगे , या कायर, धोखेबाज , भगोड़ा, आदि आदि?

इसी तरह से - कृष्ण अर्जुन के इन विचारो को "कल्मष / गन्दगी" कह रहे हैं | युद्ध शुरू हो चुका था - भेरियां बज चुकी थीं | दोनों सेनायें आमने सामने थीं | पिछले अध्याय के सारे श्लोक मैंने डिस्कस नहीं किये हैं इस सीरीज में -किन्तु अर्जुन शंख ध्वनि के बाद ही कृष्ण से कहता है कि रथ दोनों सेनाओं के मध्य में ले चलें कि मैं देख सकूं इस युद्ध में कौन किस ओर हैं | ऐसा नहीं कि वह जानता नहीं था पहले से | चाहता तो भेरियां बजने से पहले भी देख सकता था - किन्तु उसने तब तक इंतज़ार किया जब तक युद्ध शुरू हो ना गया (शंख बजना ही शुरुआत थी युद्ध के - अभी अस्त्र शस्त्र नहीं चले थे)वह जानता था कि उसे युद्ध करना है , वह सिर्फ कुछ समय के लिए भ्रमित हो गया है यहाँ - लेकिन वह यहाँ आया ही युद्ध करने के लिए है |

{....
हम सब जानते हैं कि रामायण में राम रावण के युद्ध में विभीषण अपने भाई रावण की ओर से नहीं लड़े जब कि कुम्भकर्ण लड़े | वे (कुम्भकर्ण) भी अपने भाई की इस बात के विरुद्ध थे कि उसने सीता का अपहरण किया - उसे कहा भी कि तुम गलत रास्ते पर हो - यह भी कहा कि श्री राम परम ब्रह्म हैं - उनसे इस युद्ध में मैं मर जाऊंगा - लेकिन फिर भी अपने सैनिक कर्त्तव्य के अनुसार राम से युद्ध किया कुम्भकर्ण ने | उन्होंने विभीषण को भी कहा कि तुमने अपने भाई को धोखा देकर गलत किया - जबकि वे (कुम्भकर्ण) जानते थे कि राम कौन हैं - फिर भी विभीषण के कदम को उन्होंने सही नहीं कहा | क्योंकि सैनिक का कर्त्तव्य है युद्ध में अपने राष्ट्र / राजा के लिए लड़ना - इसी को कृष्ण बार बार गीता में "क्षत्रिय धर्मं" कहते हैं | लेकिन हममे से अधिकतर यह नहीं जानते कि जब विभीषण लंका छोड़ कर राम से जुड़ने आये तो लक्ष्मण ने राम से कहा था कि - हे भाई - जो भाई मुसीबत के समय अपने भाई से धोखा कर के आपसे मिलने आ गया है - वह कतई भरोसे के लायक नहीं है - इस पर भरोसा न करे | इसे तो तुरंत मृत्युदंड दे दिया जाना चाहिए |
... }

तो कृष्ण कह रहे हैं - अब - इस समय - यह बातें तुम्हारे मन की मोहरूपी गन्दगी के सिवाय कुछ नहीं | यदि तुम इस धर्मं (कर्त्तव्य ) से पीठ दिखा कर भागते हो - तो तुम अपना नाम , यश, स्वर्ग में स्थान, सब खो दोगे | और यह भी ध्यान रखने की बात है कि वे चोट भी अर्जुन के अहम् पर कर रहे हैं इस विचारधारा को गन्दगी कह के - क्योंकि जब इंसान अपने आप को महात्यागी का लेबल देना चाहता है - तो उसका अहम् बहुत तना होता है | यह जानते हुए कि मैं जो कर रहा हूँ वह मेरे कर्त्तव्य के विरुद्ध है - और वह अपने स्वार्थी कारणों से यह करना चाह रहा है | (इस परिस्थिति में अर्जुन का स्वार्थ था अपने भाइयों, रिश्तेदारों, गुरुओं , भीष्म और द्रोण को मारने से बचना) | वह मरने से नहीं डरता - वीर है - वह प्रियजनों को खोने / मारने से डर रहा है | तो कृष्ण उसे याद दिला रहे हैं कि तुम त्याग नहीं कर रहे - महानता नहीं कर रहे - तुम अपने धर्मं से भाग कर एक नीच कर्म कर रहे हो |

अगले श्लोक के साथ फिर मिलते हैं| ....
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जारी

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disclaimer:

कई दिनों से इच्छा थी, कि भगवद गीता की अपनी समझ पर लिखूं - पर डर सा लगता है - शुरू करते हुए भी - कि कहाँ मैं और कहाँ गीता पर कुछ लिखने की काबिलियत ?| लेकिन दोस्तों - आज से इस लेबल पर शुरुआत कर रही हूँ - यदि आपके विश्लेषण के हिसाब से यह मेल ना खाता हो - तो you are welcome to comment - फिर डिस्कशन करेंगे .... यह जो भी लिख रही हूँ इस श्रंखला में, यह मेरा interpretation है, मैं इसके सही ही होने का कोई दावा नहीं कर रही
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मेरे निजी जीवन में गीता जी में समझाए गए गुण नहीं उतरे हैं । मैं गीता जी की एक अध्येता भर हूँ, और साधारण परिस्थितियों वाली उतनी ही साधारण मनुष्य हूँ जितने यहाँ के अधिकतर पाठक गण हैं (सब नहीं - कुछ बहुत ज्ञानी या आदर्श हो सकते हैं) । गीता जी में कही गयी बातों को पढने / समझने / और आपस में बांटने का प्रयास भर कर रही हूँ , किन्तु मैं स्वयं उन ऊंचे आदर्शों पर अपने निजी जीवन में खरी उतरने का कोई दावा नहीं कर रही । न ही मैं अपनी कही बातों के "सही" होने का कोई दावा कर रही हूँ। मैं पाखंडी नहीं हूँ, और भली तरह जानती हूँ कि मुझमे अपनी बहुत सी कमियां और कमजोरियां हैं । मैं कई ऐसे इश्वर में आस्था न रखने वाले व्यक्तियों को जानती हूँ , जो वेदों की ऋचाओं को भली प्रकार प्रस्तुत करते हैं । कृपया सिर्फ इस मिल बाँट कर इस अमृतमयी गीता के पठन करने के प्रयास के कारण मुझे विदुषी न समझें (न पाखंडी ही) | कृष्ण गीता में एक दूसरी जगह कहते हैं की चार प्रकार के लोग इस खोज में उतरते हैं, और उनमे से सर्वोच्च स्तर है "ज्ञानी" - और मैं उस श्रेणी में नहीं आती हूँ ।

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