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सोमवार, 28 नवंबर 2011

एको राम इक ओंकार

यह कहानी निरामिष ब्लॉग पर comment में लिखी है - सोचा - यहाँ भी शेयर करूँ :) | राम एक ही हैं - दो नहीं | इस सिलसिले में श्री तुलसी रचित रामचरितमानस से ही कथा कहती हूँ | यह कथा शिवपुराण में भी है | 

तुलसी रामायण - बालकाण्ड में यह प्रसंग आता है ->

शिव जी राम जी के भक्त थे - तब श्री सती माँ उनकी संगिनी थीं | उनके मन में भी यही सवाल उठा की "क्या यह सीता सीता कह कर जंगलों में बिलखता भटकता हुआ साधारण मानव वे राम हो सकते हैं जो मेरे शंकर जी के पूज्य हैं ?"

जद्यपि प्रगट न कहेउ भवानी। हर अंतरजामी सब जानी॥
सुनहि सती तव नारि सुभाऊ। संसय अस न धरिअ उर काऊ॥

वे कुछ बोल नहीं रही थीं, किन्तु सर्वज्ञ शिव शम्भू उनके मन की बात समझ गए थे - की नहे शंका है | उनकी यह शंका शिव जी को अच्छी न लगी - और उन्होंने सती माँ को समझाया भी | किन्तु सती माई का मन न माना | उन्होंने परीक्षा लेने के लिए सीता का रूप धरा और वन में "हे सीते" कहते रोते भटकते राम के सामने गयीं, की यदि यह मानव भ्रमित हुआ तो जान जाऊंगी की ये "सृष्टिकर्ता राम" नहीं हैं |

पुनि पुनि हृदयं बिचारु करि धरि सीता कर रूप।
आगें होइ चलि पंथ तेहिं जेहिं आवत नरभूप॥

उन्हें देखते ही श्री राम (जो सब कुछ जानते हैं ) बोले "आप यहाँ अकेली क्या कर रही हैं माते ? शिव शम्भू कहाँ हैं ?"

सती कपटु जानेउ सुरस्वामी। सबदरसी सब अंतरजामी॥
सुमिरत जाहि मिटइ अग्याना। सोइ सरबग्य रामु भगवाना॥

जोरि पानि प्रभु कीन्ह प्रनामू। पिता समेत लीन्ह निज नामू। 
कहेउ बहोरि कहाँ बृषकेतू। बिपिनि अकेलि फिरहु केहि हेतू॥ 

वे अपनी भूल जान कर सहम गयीं, की पति के समझाने के बावजूद मैं समझ न पायी और सत्य की परीक्षा ली | शिव जी के बार बार समझाने से भी मेरे मन को भ्रम बना रहा की जिस मानव को यह नहीं मालूम की उसकी पत्नी कहाँ है - वह सर्वज्ञ राम ? पति ने समझाया भी था कि जो प्रभु इस संसार का सृजन कर सकते हैं - क्या वे मानव रूप नहीं धर सकते - किन्तु मेरा मन न माना | 


इधर अब शिव जी कशमकश में पड़े - सती पत्नी को त्याग भी नहीं सकते, और जब यव मेरे प्रभु की पत्नी का रूप ले कर उनके सामने गयीं - तो मेरी माता हो गयीं - तो पत्नी रूप में स्वीकार भी नहीं सकते | क्या करें ?


तो शिवभोले करोडो वर्षों की तपस्या में ध्यानरत हुए | सती भी जान गयीं कि पति क्यों ताप में बैठ गए हैं | तो उन्हें अपना शरीर त्यागना ही था - जो दक्ष के यज्ञ में उन्होंने अग्निसमाधि लेकर किया | 

फिर पार्वती बन कर फिर से जन्मीं - तपस्या कर शिव को पाया - और उनसे कहा कि "परभो - पिछली बार हमने दशरथ नंदन राम जी को सृष्टिकर्ता राम न मानने की जो भूल की -उससे इतना कुछ हुआ | तो फिर से हम माया से भ्रमित न हों - इसके लिए हमें रामकथा सुनाइए |"

तब शिव जी ने उन्हें रामकथा सुनाई - जो रामायण नाम से हम सुनते और पढ़ते हैं |

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यह टिप्पणी भी निरामिष पर ही है - दूसरी पोस्ट पर


देखती हूँ कि वेदों की बातें घुमा फिर कर यह साबित करने के प्रयास किये जाते हैं कि (१) वेद मांसाहार सिखाते हैं, (२) राम और कृष्ण सिर्फ महापुरुष मात्र हैं आदि | ................ दिखावा ये - कि हम वेदों का सम्मान करते हैं - और यह कह कर उन्ही वेदों के अर्थों के अनर्थ करने का निरंतर प्रयास चलता रहता है | 


२. फिर - एक बात और भी है | कई बातें वेदों में नहीं भी हैं - बाद में "भाष्य" में जोड़ी गयी हैं, उन बातों को highlight कर कर के उन्हें वेदों की मूल भावना से भी अधिक महत्व देने का प्रयास |

३. श्री कृष्ण गीता में कहते हैं -"पत्रं पुष्पं फलं तोयम " अर्थात ये चार चीज़ें ही स्वीकार्य हैं प्रभु को चढाने के लिए | यह नहीं कहते की "अंडम मीटम मटनम " :)

४. यज्ञ के बारे में श्री कृष्ण गीता के श्लोक २.१४ में कहते हैं - जीव अन्न से होते हैं, अन्न वर्षा से और वर्षा यज्ञ से - इसलिए यज्ञ करो | 

५. एक बहुत महत्वपूर्ण बात है - गीता ३.३४
वेदवाणी {या किसी भी बताये हुए कर्मकांड} को समझने के लिए सद्गुरु (अर्थात जो गुरु परम्परा से हों और सत्य जानते हों, जो सिर्फ भाषाई खेल न खेल रहे हों, बल्कि सच ही वेदों में क्या है यह जानते हों } के आश्रय में जाओ, उनकी कृपा मांगो, उनकी सेवा करो, और फिर विनम्र प्रश्न कर के, और अपनी लगातार जिज्ञासाएं पूछ कर कही बात का अर्थ समझने का प्रयास करो | ..... प्रश्न का उद्देश्य अपनी बात स्थापित कर के गुरु को हराना नहीं , बल्कि गुरु की बात समझ कर ज्ञान पाना हो | 

६. किन्तु यह जो अभी वेद वाणी को घुमा फिर कर बलि को स्थापित करने का प्रयास चल रहा है - यह सब सिर्फ भाषानुवाद के आधार पर है | इसके लिए गीता में श्लोक है २.४२ से २.४६ तक
२.४२ - यामिमां पुष्पितां ....
२.४३ - कामात्मानः स्वर्गपरा ...
२.४४ - भोगैश्वर्य प्रसक्तानाम ....
२.४५ - त्रैगुन्य विषया वेदा ....
इस का अर्थ है , जिन कम बुद्धि वाले लोगों की बुद्धि वेदों की flowery (घुमावदार ) भाषा में ही फंस कर रह गयी है - वे वेदों के सन्दर्भ दे कर 
" 'न अन्यत अस्ति इति ' ....वादिनः " 
अर्थात -
वे कहते हैं कि 'बस इतना ही है - और कुछ नहीं' " | 

तो बेहतर हो कि हम गीता के सन्दर्भ में समझने का प्रयास हो कि वेद असलियत में कह क्या रहे हैं | जो यह कहें कि राम एक महापुरुष हैं सृष्टिकर्ता नहीं, कृष्ण एक महापुरुष हैं - क्या उनके कहे अनुसार वेदों को समझने का प्रयास किया जाए - तो वह प्रयास कभी भी सफल हो सकता है ?? क्या ये स्वयंभू ज्ञानी जन वेदों को कृष्ण से भी बेहतर समझते हैं और समझा सकते हैं ?

2 टिप्‍पणियां:

  1. नए रूप रंग और मज़बूती के साथ रेत का महल अच्छा लग रहा है। आशा है हम बराबर इस गृह में आते-जाते रहेंगे।
    शुभकामनाएं।

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  2. @ हर विसर्जन नव सृजन के लिए होता है ....
    "रेत के महल" शीर्षक पर पिछली बार मैंने कुछ टिप्पणी की थी. ब्लॉग विलोपन के पश्चात हुए नव अवतार में आपने दार्शनिक पुट देकर ' आगे कोई शंका न करे' -का पहले से ही समाधान कर दिया है. अच्छा लगा.
    भारतीय प्राच्य साहित्य को विकृत करने की दृष्टि से या किसी भाष्यकार की अल्प बुद्धि के कारण प्रक्षिप्तांशों का पाया जाना सर्वविदित है. मैं इसीलिये कभी-कभी तर्क की कसौटी पर सही न उतरने के कारण कह दिया करता हूँ की "यदि वेदों का यही सन्देश है तो मैं इसे अस्वीकार करता हूँ ".
    जिस दर्शन में प्राणिमात्र के कल्याण की तो छोडिये सम्पूर्ण जगत के कल्याण की कामना की गयी हो उसमें मांसाहार की संस्तुति किया जाना कदापि संभव नहीं है.

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