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शुक्रवार, 25 नवंबर 2011

श्रीमद्भगवद्गीता २.५


गुरूनहत्वा हि महानुभावान्
श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके |
हत्वार्थ कामान्स्तु गुरूनिहैव
भुञ्जीय भोगान् रुधिरप्रदिग्धान |५|

अर्जुन बोला : बड़ों को न मार कर (अच्छे लोगो के लिए) बेहतर है कि भीख मांग कर जियें, रहे | धन / किसी भी सांसारिक लाभ की प्राप्ति के लिए इन गुरुजनों को यदि हम मारते हैं, तो जो भी फल हम प्राप्त करेंगे, उसे भोगना ऐसा होगा जैसे हम उनके रक्त से सने फल भोग रहे हों |

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गीता के कुछ संस्करणों में इसका शब्दार्थ मैंने यह भी पढ़ा है की "यद्यपि वे अर्थ और काम के लोभ में हैं, किन्तु हैं तो वे गुरुजन ही" ....

परन्तु मेरे हिसाब से यह गलत अर्थ है | यह इसलिए कि - यहाँ बोलने वाला वह लेखक नहीं है जो गीता पर अपना भावार्थ रख रहा है, कि वह कहा जाए जो लेखक को ठीक लगे | यहाँ वक्ता मूल रूप से अर्जुन है, जो पिछले श्लोक के विस्तार में ही यहाँ गुरु द्रोण और पितामह भीष्म की बात कर रहा है | वह इन दोनों के विषय में ऐसा कहना तो बहुत दूर की बात है , वह इनके लिए ऐसा सोच भी नहीं रहा है | इनके अलावा वह सोच रहा है कृपाचार्य के विषय में, जो कुलगुरु हैं | जहाँ द्रोण शस्त्र गुरु थे, वहीँ कृपाचार्य नीति गुरु | और अर्जुन उनमे नहीं है जो अपने गुरुओं को उनकी गलतियों की तुला पर तोले | एक और (अर्जुन के लिए) गुरुजन (अर्थात बड़े, शिक्षक नहीं) उस ओर हैं मद्र नरेश, अर्जुन की छोटी माँ मादरी के भाई | ये पहले निकले तो थे युधिष्ठिर की ओर से लड़ने, परन्तु छल से शकुनी ने उन्हें दुर्योधन की ओर आने को मजबूर कर दिया | तो अर्जुन की दृष्टी में कोई भी "गुरु" (बड़े) जन ऐसे नहीं हैं जो अर्थ और काम के लिए उस ओर खड़े हों |

अब देखिये ...

यहाँ अब अर्जुन एक महान वैराग्य प्राप्त सन्यासी की तरह कह रहा है कि मैं अपने बड़ों के विरुद्ध रक्त पात करने की अपेक्षा यह समझता हूँ कि भीख माग कर खाऊँ तो बेहतर है | याद रखिये- यह वही अर्जुन है जो महीने भर पहले तक युद्ध के लिए व्याकुल था, अपने बड़े भाई युधिष्ठिर पर दबाव डाल रहा था | और तब भी इतना तो वह जानता था ही कि उसे किनके विरुद्ध खडा होना है - क्योंकि यह बात तो द्रोण और भीष्म दोनों ही उसे द्रौपदी चीरहरण के अगले रोज़ ही साफ़ बता चुके थे | वह तो तब ही दुर्योधन से युद्ध को उद्यत हो उठा था , परन्तु रोक दिया गया था |

परन्तु श्री कृष्ण जानते थे कि यह अर्जुन का क्षणिक मोह है - वे सही और गलत को सही रूप में देखते समझते थे, और रिश्तों से ऊपर भी धर्म को निभाना कितना ज़रूरी है, यह भी जानते थे | तो वे अपने परम भक्त को कैसे ऐसी गलती करने देते ? पल भर को मान ले, यदि उस क्षणिक अंधेपन में अर्जुन युद्ध से हट जाता - तो क्या वह होश आने के बाद अपने आप को माफ़ कर पाता ? दूसरों की नज़र में नीचा होना तो झेला जा सकता है, परन्तु स्वयं अपनी नज़र में गिर कर अर्जुन शान्ति पा सकता था? यदि मेरी आँख में कुछ पड़ जाए और मुझे न दिखे कि मेरे अगले कदम पर खाई है, मैं कदम बढ़ाना चाहूँ और मेरे साथ मेरा परम सखा हो - तो क्या वह मुझे खाई में गिर जाने देगा, या रोकेगा ? इसी तरह श्री कृष्ण ने अर्जुन को क्षणिक अन्धता के वश हो कर कर्त्तव्य विमुखता की खाई में गिरने से रोका, बचाया |

अगले श्लोक को लेकर फिर मिलते हैं ...

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जारी
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disclaimer:

कई दिनों से इच्छा थी, कि भगवद गीता की अपनी समझ पर लिखूं - पर डर सा लगता है - शुरू करते हुए भी - कि कहाँ मैं और कहाँ गीता पर कुछ लिखने की काबिलियत ?| लेकिन दोस्तों - आज से इस लेबल पर शुरुआत कर रही हूँ - यदि आपके विश्लेषण के हिसाब से यह मेल ना खाता हो - तो you are welcome to comment - फिर डिस्कशन करेंगे .... यह जो भी लिख रही हूँ इस श्रंखला में, यह मेरा interpretation है, मैं इसके सही ही होने का कोई दावा नहीं कर रही
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मेरे निजी जीवन में गीता जी में समझाए गए गुण नहीं उतरे हैं । मैं गीता जी की एक अध्येता भर हूँ, और साधारण परिस्थितियों वाली उतनी ही साधारण मनुष्य हूँ जितने यहाँ के अधिकतर पाठक गण हैं (सब नहीं - कुछ बहुत ज्ञानी या आदर्श हो सकते हैं) । गीता जी में कही गयी बातों को पढने / समझने / और आपस में बांटने का प्रयास भर कर रही हूँ , किन्तु मैं स्वयं उन ऊंचे आदर्शों पर अपने निजी जीवन में खरी उतरने का कोई दावा नहीं कर रही । न ही मैं अपनी कही बातों के "सही" होने का कोई दावा कर रही हूँ। मैं पाखंडी नहीं हूँ, और भली तरह जानती हूँ कि मुझमे अपनी बहुत सी कमियां और कमजोरियां हैं । मैं कई ऐसे इश्वर में आस्था न रखने वाले व्यक्तियों को जानती हूँ , जो वेदों की ऋचाओं को भली प्रकार प्रस्तुत करते हैं । कृपया सिर्फ इस मिल बाँट कर इस अमृतमयी गीता के पठन करने के प्रयास के कारण मुझे विदुषी न समझें (न पाखंडी ही) | कृष्ण गीता में एक दूसरी जगह कहते हैं की चार प्रकार के लोग इस खोज में उतरते हैं, और उनमे से सर्वोच्च स्तर है "ज्ञानी" - और मैं उस श्रेणी में नहीं आती हूँ ।

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